Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2 Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 22
________________ गो० जीवकाण्डे तत्संज्ञिपंचेंद्रियपर्य्याप्तनोळेयक्कुमन्यनोच्ागर्द बुर्दारदं इतरमत्यज्ञानमुं श्रु ताज्ञानमुर्म बोयज्ञानद्वयमेकेंद्रियादिगळोळु पर्य्याप्तापर्य्याप्तकरोळेल्लरोळ मिथ्यादृष्टिसासादनरोल संभविसुगु में दु पेळपट्टुदातु । खलु स्फुटमागि । अनंतरं सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळ ज्ञानस्वरूपमं पेव्दपं । मिस्सुद संमिस्सं अण्णाणतिएण णाणतियमेव । संजम विसेस सहिए मणपज्जवणाणमुद्दिट्ठ ॥ ३०२ ॥ मिश्रोदये संमिश्रमज्ञानत्रयेण ज्ञानत्रयमेव । संयमविशेषसहिते मनःपर्य्ययज्ञानमुद्दिष्टं ॥ मिश्रोदये सम्यग्मिथ्यात्वकम्र्मोदयमागुत्तिरलु अज्ञानत्रयदोडने सम्यग्ज्ञानत्रयमे संमिश्र संमिश्रमक्कुमशक्यविवेचनत्वदिदं । सम्यग्मिथ्यामतिज्ञानमुं सम्यग्मिथ्या तज्ञानमुं सम्यग्मिथ्या१० वधिज्ञानमु में व व्यपदेशमक्कुं । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोळ वर्त्तमानज्ञानत्रयं केवलं सम्यग्ज्ञानमुमल्तु । केवलं मिथ्याज्ञानमुमल्तु । मत्तं तप्पुदेदो डुभयात्मकश्रद्धानमात्मनोळे तंते वुभयात्मकत्वदिदं ज्ञानमुं संमिश्र दितु युक्तमप्पुदाचार्य्यं रुर्गाळदं पेळपट्टुवु । मनःपर्य्ययज्ञानं मत्त संयमविशेषसहितनोळु प्रमत्तत्यतादिक्षीणकषायपय्यं तमप्प गुणस्थानसप्तकदोळ तपोविशेषोपबृंहितविशुद्धिपरिणाममुळनो संभविसुगुमितरदेशसंयतादियोळु संभविसदेक दोर्ड देशसंयतादियो तद्विधतपो१५ विशेषाऽभावमप्युर्दारवं । ५०८ मिथ्याज्ञानं तत् संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्त एव भवति नान्यस्मिन् जीवे इति अनेन इतरत् मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानमिति एकेन्द्रियादिषु पर्याप्तापर्याप्तेषु सर्वेषु मिथ्यादृष्टिसासादनेषु संभवति इति कथितं भवति । द्वितीयः खलुशब्दः अतिशयेन स्पष्टत्वार्थे स्फुटं ॥ ३०१ ॥ अथ सम्यर्गमथ्यादृष्टिगुणस्थाने ज्ञानस्वरूपं निरूपयति मिश्रोदय - सम्यक् मिथ्यात्वकर्मोदये सति अज्ञानत्रयेण सह सम्यग्ज्ञानत्रयमेव सम्मिश्रं भवति अशक्य२० विवेचनत्वेन सम्यग्मिथ्यामतिज्ञानं सम्यग्मिथ्या श्रुतज्ञानं सम्यग्मिथ्यावधिज्ञानमिति व्यपदेशभाग्भवति । सम्यग्मिथ्यादृष्टौ वर्तमानं ज्ञानत्रयं न केवलं सम्यग्ज्ञानं, न केवलं मिथ्याज्ञानं, किन्तु उभयात्मकश्रद्धानवत् उभयात्मकत्वेव मिथ्याज्ञानसंमिश्रं सम्यग्ज्ञानं भवति इत्याचार्यैः कथितं ज्ञातव्यम् । मनःपर्ययज्ञानं तु संयमविशेषसहितेष्वेव प्रमत्तसंयतादिक्षीणकषायपर्यन्तेषु सप्तगुणस्थानेषु तपोविशेषोपबृंहितविशुद्धिपरिणामविशिष्टेषु कि जो अवधिज्ञानका विपरीत रूप विभंग नामक मिथ्याज्ञान है, वह संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के २५ ही होता है, अन्य जीवके नहीं होता । इससे यह व्यक्त होता है कि अन्य मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान ये दोनों एकेन्द्रिय आदि पर्याप्त और अपर्याप्त सब मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जीवोंके होते हैं ||३०१ || अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ज्ञानका स्वरूप कहते हैं मिश्र अर्थात् सम्यक मिध्यात्व कर्मका उदय होनेपर तीन अज्ञानोंके साथ तीनों ३० सम्यग्ज्ञान मिले हुए होते हैं। अलग-अलग करना शक्य न होनेसे उन्हें सम्यग्मिथ्या मतिज्ञान, सम्यग्मिथ्या श्रुतज्ञान और सम्यग्मिथ्या अवधिज्ञान नामसे कहते हैं । सम्यग्मिध्यादृष्टिमें वर्तमान तीनों ज्ञान न केवल सम्यग्ज्ञान होते हैं और न केवल मिथ्याज्ञान होते हैं, किन्तु जैसे उनके सम्यग्रूप और मिथ्यारूप मिला हुआ द्वान होता है, वैसे ही मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान मिला हुआ होता है, यह आचार्यका कथन जानना । किन्तु मन:पर्ययज्ञान विशेष संयमसे सहित प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानपर्यन्त सात गुणस्थानों में तपविशेषसे वृद्धिको प्राप्त विशुद्धिरूप परिणामोंसे विशिष्ट ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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