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गीता-दर्शन अध्याय 7
अनन्य निष्ठा ... 317
जीवन का स्वीकार / अस्वीकार और विरोध-अहंकार के कारण / प्रेम में दो शेष रहते हैं / प्रार्थना में दो विलीन हो जाते हैं / प्रेमियों को दूरी और सीमा का अहसास / प्रेमियों की पीड़ा / केवल प्रभु-प्रेम ही असीम / तू खोते ही मैं भी खो जाएगा / न प्रेमी न प्रेयसी–केवल प्रेम शेष / दो व्यक्तियों में कलह सुनिश्चित / प्रेम की अशुद्धि का भक्ति में प्रक्षेप / राग की कालिमा / कृष्ण के मैं को समझा तो पूरी गीता समझी / कृष्ण का सहज ही कहना : सब छोड़; मेरी शरण आ / पीछे कोई अहंकार नहीं है / अहंकार जटिल और चालाक होता है / वैज्ञानिक प्रयोग में संशय जरूरी / विज्ञान में ससंशय निष्ठा / धर्म में निःसंशय निष्ठा / संशय के लिए-गलती दूसरे में / निःसंशयी-भूल स्वयं में खोजता है / मिटना धर्म है / आज की शिक्षा–संदेह की / पूरब की श्रद्धा पर आस्था / भीतर का द्वार खुलता है-श्रद्धा से / अर्जुन ने अश्रद्धा के प्रश्न न उठाए / जिप्सियों की समूहगत जीवन शैली / जैसे संस्कार-वैसे विचार / अति पर संशय का गिर जाना / निःसंशय आत्मीयता में ही गहरे सत्य संवादित / संदेहशील चित्त बंद होता है / रूपांतरण का भय / परमात्मा में आसक्त मन वाला इसका क्या अर्थ है? / पूर्ण अनासक्त व्यक्ति ही परमात्मा में आसक्ति वाला / समस्त रूपों में छिपा अरूप / समस्त आकारों में छिपा निराकार / संदर्भ के अनुकूल शब्दों के भिन्न अर्थ / इक साधे सब सधै / श्वेतकेतु का शास्त्रज्ञान / स्वयं मिटकर ही रहस्य जाना जाता है / रहस्य में जानने वाले का खो जाना / फिलासफी और धर्म का अंतर / अज्ञान में छलांग / मास्टर-की-ऐसी कंजी जिससे सब ताले खुल जाते हैं / ज्ञान का बोझ / आत्मज्ञान।
सक्त व्यक्ति ही परमात्मा में आ
नराकार / संदर्भ के अनकल
श
कर ही रहस्य जाना जाता
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परमात्मा की खोज ... 333
प्रभु को वस्तुतः कभी खोया नहीं है / पाना कठिन है, क्योंकि हम उसकी ओर पीठ किए हैं / प्रभु से दूर भागना / करोड़ों में कोई एक उसे खोजता है / पता चलने के लिए दूरी चाहिए / सागर बिच मीन पियासी / ध्यान जाता है—अभाव की ओर / निकट पर ध्यान को लगाना / वर्तमान में रस लेना / संतोष का अर्थ / प्रभु-खोज की अभीप्सा / मन का भिखमंगापन / और ज्यादा-और ज्यादा / नहीं है को भूलें-जो है, उसे देखें / कोई भी गरीब नहीं है / बोधकथा : आंखें बेचोगे? हाथ-पैर बेचोगे? / संदेहवान चित्त नकारात्मक / श्रद्धालु चित्त विधायक / समर्पण अति दुर्लभ है / बाहुबली की कठिन तपश्चर्या / अहंकार को खोना / पंच महाभूत-आधुनिक विज्ञान की भाषा में / जीवन की मूलाधार ऊर्जा-अग्नि / अंतर्यात्रा में प्रकाश के अनुभव / जीवन-ज्योति और आक्सीडाइजेशन / विद्युत-अग्नि का ही एक रूप / अग्नि के तीन रूप-ठोस, द्रवीय और वायुवीय / अग्नि की स्थिति-आकाश में, स्पेस में / समय-आकाश का ही एक रूप / अग्नि देवता और पंच महाभूत-लोक-भाषा के शब्द / अग्नि के ही अंतस रूप—मन, बुद्धि, अहंकार / पंच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार-इन आठ के पार है परमात्मा / अहंकार बड़ा सूक्ष्म है / कुछ भी करो-अहंकार पीछे खड़ा हो जाता है । अहंकार, बुद्धि और मन-विद्युत ऊर्जा से ही क्रियाशील / मशीनों में बुद्धि और अस्मिता भी डालना संभव / मनुष्य का अहंकार भी यांत्रिक है / जो अस्रष्ट है-वह परमात्मा / जो निर्मित हुआ—वह प्रकृति है / प्रकृति के पार जाए कोई तो परमात्मा / अपरा है प्रकृति-परा है चैतन्य / योग-पार को पहचानने की प्रक्रिया / साक्षीत्व से-परा / जो भी दृश्य बन गया वह मैं नहीं हूं / मैं को देखने में कठिनाई-क्योंकि वह अति सूक्ष्म है / दूसरे की उपस्थिति से मैं में फर्क / हाथी का अहंकार-चूहे का अहंकार / जागकर देखें-यह मैं कब-कब