Book Title: Dwatrinshad Dwatrinshika
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Vijaylavanyasuri Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 642
________________ 189 संपादयेन्नृपसभासु विगृह्य तानि येनाध्वना तमभिधातुमविन्नमस्तु // 1 // साध्यादृते विजयः सुलभः सदस्सु पार्श्वस्थितेषु हि जयश्च पराजयश्च / तस्मादविक्लवमनुल्वणसाधुकारं सामप्रवीणगणनासमयेषु योज्यम् // 2 // प्राक् तावदीश्वरमनः सदसश्च चक्षु मन्तव्यमात्मनि परत्र च किं प्रकारम् / यद्यात्मनो हि परिहासजयोत्तरं स्या दुक्तोपचारचतुरप्रतिभोऽन्यथा तु // 3 // सौम्यः प्रभुर्यदि विपक्षमुखाः सदस्याः / स्युस्तत् साधुरेव. गमयेत् परिभ्य शेषान् / तस्मिन् स्वभद्रचरितेऽप्युचितः प्रसादः . सत्कृत्य विग्रहवचःस्तिमितं निहन्यात् // 4 // आभाष्य भावमधुरार्पितया कृतास्तान् ... दृष्ट्याऽवसाद्य च निवर्तितया विनेयान् / ब्रूयात् प्रतीतमुखशब्दमुपस्थितार्थे नौच्चैर्न मन्दमभिभूय मनः परस्य // 5 // वादास्पदं प्रतिवचश्च यथोपनीत मारोप्य यः स्मृतिपथः प्रतिसंविधत्ते / " वैलक्ष्यविस्मृतमदान् द्विषतः स सूक्तैः / .. प्रत्यानयन् परिजनीकुरुते सदस्यान् // 6 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694