Book Title: Dwatrinshad Dwatrinshika
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Vijaylavanyasuri Granthmala

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Page 656
________________ दशमी द्वात्रिंशिका प्राणायामो वपुश्वित्रजाड्यदोषविशोधनः / शक्त्युत्कृष्टकलत्कार्यः प्रायेणैश्वर्यसत्तमः // 24 // क्रूर क्लिष्टवितर्कात्मानिमित्तामयकण्टकात् / उद्धरेद गतिशब्दादि वपुः स्वाभाव्यदर्शनात् // 25 // चर-स्थिर-महत्-सूक्ष्मसंज्ञा-ज्ञानार्थ-संगतिः / यथासुखजयोपायमिति पायाज्जितं जिनम् // 26 // इत्याश्रवनिरोधोऽयं कषायस्तम्भलक्षणः / तद्धय॑मस्माच्छुक्लं तु तमःशेषक्षयात्मकम् // 27 // नेहारभणचारोऽस्ति केवलोदीरण-व्यये / अनन्तैश्वर्यसामर्थ्यात् स्वयं योगी प्रपद्यते // 28 // . तत् क्षीयमाणं क्षीणं तु चरमाभ्युदयेक्षणे / कैवल्यकारणं पङ्ककललाम्बुप्रसादवत् // 29 // चक्षुर्वद विषयाख्यातिरवधिज्ञान-केवले / शेषवृत्तिविशेषात् तु ते मते ज्ञान-दर्शने // 30 // जगस्थितिवशादायुस्तुल्यवेद्यादपि त्रयम् / करोत्यात्मसमुद्घा ताद योगशान्तिरतः परम् // 31 // सर्वप्रपञ्चोपरतः शिवोऽनन्त्यपरायणः / सद्भावमात्रप्रज्ञप्तिनिरुपाख्योऽथ निवृतः // 32 // प्रदोपध्यानवद् ध्यानं चेतनावद् विचेष्टितम् / ते विकल्पवशाद् भिन्ने भव-निर्वाणवर्मनि // 33 // जिनोपदेशदिङ्मात्रमितीदमुपदर्शितम् / यदवेत्य स्मृतिमतां विस्तरार्थो भविष्यति // 34 //

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