Book Title: Dwatrinshad Dwatrinshika
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Vijaylavanyasuri Granthmala

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Page 690
________________ एकविंशतितमी वर्धमानद्वात्रिंशिका हषीकेश ! विष्णो ! जगन्नाथ ! जिष्णो ! मुकुन्दाऽच्युत ! श्रीपते ! विश्वरूप ! / अनन्तेति संबोधितो यो निराशैः __ स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः // 5 // पुरा-ऽनङ्ग-कालारिराकाशकेशः कपाली महेशो महाव्रत्युमेशः / / मतो योऽष्टमूर्तिः शिवो भूतनाथः स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः // 6 // विधि-ब्रह्म-लोकेश-शम्भु-स्वयम्भू- .. चतुर्वक्त्र-मुख्याभिधानां विधानम् / ध्रुवोऽथो य ऊचे जगत्सर्गहेतुः स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः // 7 // न शूलं न चापं न चक्रादि हस्ते - न हास्यं न लास्यं न गीतादि यस्य / न नेत्रे न गात्रे न वक्त्रे विकारः . स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः // 8 // न पक्षी न सिंहो वृषो नापि चापं ... . न रोष-प्रसादादिजन्मा विडम्बः / न निन्द्यैश्चरित्रैर्जने यस्य कम्पः स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः // 9 // न गौरी न गङ्गा न लक्ष्मीर्यदीयं - वपुर्वा शिरो वाप्युरो वा जगाहे / . .

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