Book Title: Dwatrinshad Dwatrinshika
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Vijaylavanyasuri Granthmala

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Page 649
________________ 5 श्रीसिद्धसेनदिवाकरप्रणीता अशुभवितर्कधूमितहृदयः कृत्स्ना क्षपामपि न शेते / कुण्ठितदर्पः परिषदि वृथात्मसंभावनोपहतः // 13 // प्राश्निकचाटुप्रणतः प्रतिवक्तरि मत्सरोष्णाबद्धाक्षः / ईश्वररचिताकुम्भो भरतक्षेत्रोत्सवं कुरुते // 14 // यदि विजयते कथञ्चित् तताऽपि परितोषभग्नमर्यादः / स्वगुणविकत्थनदूषिकः त्रीनपि लोकान् खलीकुरुते // 15 // उत जीयते कथञ्चित् परिषत्प्रतिवादिनं स कोपान्धः / गलगर्जेनाक्रामन् वैलक्ष्यविनोदनं कुरुते // 16 // वादकथां न क्षमते दीर्घ निःश्वसिति मानभङ्गोष्णम् / रम्येऽप्यरतिज्वरितः सुहृत्स्वपि वज्रीकरणवाक्यः // 17 // दुःखमहङ्कारप्रभवमित्ययं सर्वतन्त्रसिद्धान्तः / अथ च तमेवारूढस्तत्त्वपरीक्षां किल करोति // 18 // ज्ञेयः परसिद्धान्तः स्वपक्षबलनिश्चयोपलब्ध्यर्थम् / परपक्षक्षोभणमभ्युपेत्य तु सतामनाचारः // 19 // स्वहितायैवोत्थेयं को नानामतिविचेतनं लोकम् / यः सर्वज्ञैर्न कृतः शक्ष्यति तं कर्तुमेकमतम् // 20 // सर्वज्ञविषयसंस्थान् छमस्थो न प्रकाशयत्यर्थान् / नाश्चर्यमेतदत्यद्भुतं तु यत् किञ्चिदपि वेत्ति // 21 // अविनिर्नयगम्भीरं पृष्टः पुरुषोत्तरो भवति वादी / परिचितगुणवात्सल्यः प्रीत्युत्सवमुत्तमं कुरुते // 22 // . विनयमधुरोक्तिनिर्मममसारमपि वाक्यमास्पदं लभते / सारमपि गर्वदृष्टं वचनमपि मुनेर्वहति वायुः // 23 //

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