Book Title: Dwatrinshad Dwatrinshika
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Vijaylavanyasuri Granthmala
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________________ नवमी वेदवादद्वात्रिंशिका पुरुषवचनोद्यतमुखैः काहलजनचित्तविभ्रमपिशाचैः / / धूतैः कलहस्य कृतो मीमांसानामपरिवर्तः // 25 // परिनिग्रहाध्यवसितः चित्तैकाग्र्यमुपयाति यद् वादी / यदि तत् स्याद् वैराग्येण चिरेण शिवपदमुपयातु // 25 // एकमपि सर्वपर्ययनिर्वचनीयं यदा न वेत्त्यर्थम् / मां प्रत्यहमिति गर्वः स्वस्थस्य न युक्त इति पुंसः // 26 // 9. नवमी वेदवादद्वात्रिंशिका / . अजः पतङ्गः शबलो विश्वमयो धत्ते गर्भमचरं चरं च / योऽस्याध्यक्षमकलं सर्वधान्यं वेदातीतं वेद वेद्यं स वेद // 1 // स एवैतद् विश्वमधितिष्ठत्येकस्तमेवैतं विश्वमधितिष्ठत्येकम् / स एवैतद् वेद यदिहास्ति वेधं तमेवैतद् वेद यदिहास्ति वेद्यम् // 2 // स एवैतद् भुवनं सृजति विश्वरूपः तमेवैतत् सृजति भुवनं विश्वरूपम् / . न चैवैनं सृजति कश्चिन्नित्यजातं / . न चासौ सृजति भुवनं नित्यजातम् // 3 // एकायनशतात्मानमेकं विश्वात्मानममृतं जायमानम् / यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति यस्तं च वेद किमृचा करिष्यति // 4 // सर्वद्वारा निभृता मृत्युपाशैः स्वयंप्रभानेकसहस्रपर्वाः / यस्यां वेदाः शेरते यज्ञगर्भाः सैषा गुहा गूहते सर्वमेतत् // 5 // भावाभावो निःस्वतत्त्वः सतत्त्वो निरञ्जनो रञ्जनो निःप्रकारः / गुणात्मको निर्गुणो निष्प्रभावो विश्वेश्वरः सर्वमयो न सर्वः॥६॥

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