Book Title: Dvadasharnaychakram Part 4
Author(s): Mallavadi Kshamashraman, Labdhisuri
Publisher: Chandulal Jamnadas Shah

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Page 14
________________ स्कन्दिलाचार्य बे थया छे. एक आर्य जीतधर स्कन्दिलाचार्य ने बीजा अनुयोगधर स्कन्दिलाचार्य जेनो निर्देश नन्दिसूत्रनी छव्वीस ने तेत्रीसमी गाथामां करायो छे । 'सामजं वन्दे कोसियगोत्तं संडिल्लं अजजीयधरं ॥ २६ ॥ तं वन्दे खंदिलायरिए ॥ ३३ ॥' एक वात तो दीवा जेवी स्पष्ट छे के नन्दिसूत्रमां आ महात्माओनो नाम-निर्देश करायो छे माटे तेओश्री नन्दिसूत्रना रचनाकालना पूर्ववर्ती निर्गन्थशिरोमणि छे । बात एक ए रही जाय छे के 'संडिल्लं' नो अर्थ स्कन्दिल केवी रीते ? भगवान हरिभद्रसुरिम. भगवान मलयगिरि वगेरे टीकाकारोए संडिलं नो अर्थ शाण्डिल्य कर्यो छे, एनी सामे एक ज बात कहेवानी छे के ऊपर उल्लिखित नन्दिसूत्रवाळा 'स्कन्दिलायरिए' नो कल्पसूत्रना वीसमा सूत्रमा संडिल्ल शब्दथी नामोल्लेख कयों छे। __'थेरस्स णं अजसीहस्स कासवगुत्तस्स अजधम्मे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते थेरस्स णं अजधम्मस्स कासवगुत्तस्स अजसंडिल्ले थेरे अंतेवासी' कल्पसूत्र (२०) आथी आपणे समजी शकीशु के संडिल्ल शब्दनो स्कंदिलना अर्थमां पण उपयोग थई शके छे. । अहीं ए संडिल्ल शब्द नंदिमां उल्लिखित 'खंदिल'माटे ज वपरायो छ कारणके नंदिनी टीकामां भगवान हरिभद्रसूरिम. खंदिल ने सिंहवाचकना शिष्य तरीके निर्देश करे छे एज निर्देश ऊपरना कल्पसूत्रना वीसमा सूत्रमा करायो छे, अलबत एमां संडिल्ल [ खंदिल्ल] ने आर्यसिंहना प्रशिष्य तरीके निर्देश्या छे परन्तु आ परिवर्तन सर्वथा न गण्य छे कारण के एक ज व्यक्तिने अनुलक्षीने टीकामां शिष्य अने मूळमां प्रशिष्य तरीकेनो उल्लेख जोवा मळे छे। आर्य जीतधर स्कन्दिलाचार्यनो समय वीरनिर्वाण संवत् ३७६-४२४ इतिहासकारोए नक्की कयों छ । आ समयमा विद्याधरवंशना आ महापुरुष युगप्रधान तरीके प्रभु शासननी धुरा वहन करता हता। भगवान दिवाकर सू. म. आ ज महापुरुषना प्रशिष्य हता अने श्रीवृद्धवादिसूरिना शिष्य हता। आथी अत्यन्त स्पष्टरूपे निश्चित करी शकाय के भगवान दिवाकरसूरिनो समय वीरनिर्वाणनी पांचमी सदीनो ज होवो जोइये ! ज्यारे संवत प्रवर्तक विक्रमादित्यनुं अनुशासन चालतुं हतुं । १. प्राचीन कालमें मालव नामक गणोंका विशेष प्रभुत्व था, ईखीपूर्व तृतीयशतकमें इसने क्षुद्रकगणके साथ सिकंदर का सामना किया था, पर विशेषसहायता न मिलनेसे पराजित हो गया था, यही मालव जाति प्रीकलोगोंके सतत आक्रमण से खंडित होकर राजपुताने की ओर आई, और मालवामें ईखीपूर्व प्रथमद्वितीय शताब्दीमें अपना प्रभुत्व जमाया, यह गणराज्य था, और विक्रमादित्य इसी गणतंत्रके मुखिया थे. शकोंके आक्रमणको विफल बनाकर विक्रमने शकारिकी उपाधि धारण की, और अपने मालवगणको प्रतिष्ठित किया, इसीसे इस संवतका मालवगणस्थिति नाम पडा था. (संस्कृतसाहित्य का इतिहास पृ. १४४ में बलदेव उपाध्याय) तथा राजा हाल की गाथासप्तशती 'संवाहणसुहरसतोसिएण देन्तेन तुहकरे लक्खम् । चलणेण विक्कमाइत्त चरिअं अणुसिक्खिअंतिस्सा ॥५-६४ में विक्रमादित्य नामक एक प्रतापी तथा उदार शासक का निर्देश है जिसने शत्रुओंपर विजय पानेके उपलक्ष्य में भृत्योंको लाखोंका उपहार दिया था. जैनग्रन्थोंसे इस बातकी पर्याप्त पुष्टि होती है. (संस्कृत साहित्यका इतिहास पृ० १४३). Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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