Book Title: Dhammapada 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 179
________________ एस धम्मो सनंतनो ___ उस स्त्री ने कहा कि यह किताब में ऐसा लिखा हुआ है। उस आदमी ने कहा, फेंको इस किताब को बाहर। मैं मरा जा रहा है, तुम्हें ज्ञान की पड़ी है। यह सब बकवास है। इधर मेरा हाथ...इतना भयंकर पीड़ा हो रही है, अब यहां ध्यान करने का यह कोई अवसर है? लेकिन कोई और तो उपाय न था। कोई दवा न थी पास, अस्पताल पहुंचतेपहुंचते घंटों लगते। पंद्रह-बीस मिनट बाद उसने कहा, अच्छा हर्ज क्या है, कोशिश कर के देख लें। कोई और उपाय भी नहीं है। निरुपाय आदमी कभी-कभी ठीक बातें कर लेता है। जब तक उपाय होते हैं तब तक कौन ठीक बातें करे? अगर अस्पताल पास होता तो उसने प्रयोग न किया होता। अगर ऐस्प्रो पास होती तो उसने ऐस्प्रो पर भरोसा किया होता, बुद्ध पर नहीं। आदमी की मूढ़ता का कोई हिसाब है! ऐस्प्रो पर ज्यादा भरोसा कर ले, ध्यान पर नहीं। न कोई उपाय देखकर, मजबूरी में, असहाय अवस्था में, वह लेट गया कार में और उसने कहा, अच्छा, मैं कर के देखता हूं। सारी चेतना तो अपने आप दौड़ी जा रही थी। जब कहीं चोट होती है तो चेतना अपने आप उस तरफ दौड़ती है, और बुद्ध ने कहा, सब इकट्ठा कर लेना, जैसे पूरा शरीर भूल ही जाए, बस उतनी ही जगह याद रह जाए जहां दर्द है। वह दर्द के करीब लाया, चेतना को दर्द के करीब लाया, दर्द ऐसा हो गया जैसे कि छुरी की धार हो। तेज हो गया, पैना हो गया, भयंकर हो गया, और भी त्वरा पकड़ ली उसने, तेजी आ गयी, एक लपट की तरह मालूम होने लगा, और तब उसने कहा, दर्द...दर्द...दर्द...। और वह चकित हुआ, उसे भरोसा न आया कि क्या हुआ! दर्द एकदम विलीन हो गया। तादात्म्य टूट गया। इसे तुम प्रयोग करके देखना। प्यास लगे तो ध्यान रखना, तुम्हें नहीं लगी है, शरीर को लगी है। बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे, जब भी कोई तुम्हें चीज ज्यादा सताने लगे तो तीन बार, ध्यान करके तीन बार कहना, प्यास...प्यास...प्यास...! और तुम पाओगे प्यास अलग हो गयी। और जैसे ही प्यास अलग हो जाती है, उसकी पकड़ छूट जाती है। तब तुम्हें ऐसा लगता है जैसे प्यास किसी और को लगी, भूख किसी और को लगी, बूढ़ा कोई और हुआ, रोग किसी और को आया, तुम अलग हो जाते हो। यह अलग हो जाने की कला ही अप्रमाद है। और जो जीवन के रोज-रोज छोटे-छोटे कामों में अलग होता गया, बूंद-बूंद चोट पड़ी चट्टान पर अंधेरे की, बूंद-बूंद चोट पड़ी चट्टान पर अज्ञान की, बूंद-बूंद चोट पड़ी चट्टान पर तादात्म्य की, और जो रोज-रोज प्यास लगी तब भी उसने ध्यान से अपने को अलग किया; पानी दिया, तृप्ति हुई, तो भी अपने को अलग रखा; कहा कि शरीर को प्यास थी, शरीर को तृप्ति हुई; शरीर को भूख थी, शरीर की भूख मिटी; शरीर को रोग था, शरीर का रोग गया; और हर घड़ी अपने को अलग रखा, अलग रखा, अलग रखा; 166

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