Book Title: Dhammapada 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 257
________________ एस धम्मो सनंतनो लोग उस कसौटी पर जो कस गया, वह सही था; जो नहीं कसा, वह गलत था । हिंदू-धर्म में जो भी श्रेष्ठ था उन दिनों, वह बुद्ध के पास आ गया; कूड़ा-कर्कट रह गया बाहर । लेकिन जो बात उपनिषद के लिए हो गयी थी, वही बुद्ध के लिए हो गयी एक दिन । बुद्ध का शून्य भी धीरे-धीरे चर्चित होते-होते व्यर्थ हो गया। उसमें से पूर्ण का भाव ही खो गया। वह निपट शून्य रह गया । वह केवल दरवाजा रह गया, भीतर कोई मंदिर नहीं। दरवाजे में से आर-पार हो जाओ, लेकिन कहीं कुछ नहीं । शून्य केवल नकार रह गया। बुद्ध के लिए विधेय का द्वार था, लेकिन बौद्धों के लिए केवल नकार रह गया। बौद्ध पंडित पैदा हुए, उन्होंने कहा, हम उपनिषद से अलग हैं। वेद के हम विरोधी हैं। बुद्ध पंडित के विरोधी थे, वेद के नहीं । बुद्ध जन्मजात ब्राह्मण के विरोधी थे, अर्जित ब्राह्मणत्व के नहीं । बुद्ध ने ब्राह्मण की नयी परिभाषा की थी, ब्राह्मण का विरोध नहीं । बुद्ध ने वेद को नए अर्थ दिए थे, वेद का विरोध नहीं । बुद्ध स्वयं प्रमाण थे वेद और उपनिषद के। उन्होंने पुनरुज्जीवित किया था सब, जो-जो खो गया था उसको फिर नया रंग, नयी रौनक दी थी। संगीत वही था, गीत नया था । लयबद्धता वही थी, लेकिन शब्द बदल दिए थे। फिर वही हुआ, जो होना था। जैसे उपनिषद पंडित के हाथ में पड़ गया था, ऐसे बुद्ध का शून्य भी पंडित के हाथ में पड़ गया । वह शून्य कोरा शाब्दिक था । उस शून्य में कुछ भी न था, कोई गहराई न थी । वह सिर्फ बकवास था । वह तर्कजाल था। बड़े तर्कजाल पैदा हुए बुद्ध के पीछे । इसलिए मैं दोनों का प्रयोग एक साथ कर रहा हूं। पूर्ण को भी पंडित नष्ट कर चुका, शून्य को भी पंडित नष्ट कर चुका। अब तो एक ही उपाय है कि हम दोनों का एक साथ उपयोग करें। शायद पंडित दोनों को एक साथ न पकड़ पाए। क्योंकि पंडित को लगेगा, यह तो विरोधाभासी है, संगति नहीं है । मेरी बात, पंडित को लगेगी विरोधाभासी है, कंट्राडिक्ट्री है, इनकंसिस्टेंट है। क्योंकि पंडित का अर्थ है, तर्क । वह कहेगा ः या तो कहो पूर्ण, तो पक्का कि तुम उपनिषदवादी हो; या कहो शून्य, तो पक्का कि तुम बुद्धवादी हो । : मैं कोई वादी नहीं हूं। मैंने तो देखा कि शून्य का द्वार पूर्ण के मंदिर में पहुंचा देता है। और मैंने देखा कि पूर्ण के मंदिर में जिसे भी जाना हो, वह शून्य के द्वार के अतिरिक्त और कहीं से जा नहीं सकता। तो मेरे लिए शून्य और पूर्ण में विरोध नहीं है । शून्य साधना है, पूर्ण साध्य है। दोनों को मैं एक साथ उपयोग कर रहा हूं, ताकि पंडित की पकड़ मुझ पर न बैठ सके। जहां-जहां संगति है वहां-वहां पंडित पकड़ बिठा लेता है। सिर्फ असंगत को पंडित नहीं पकड़ पाता। इसलिए कुछ चीजें हैं दुनिया में जो पंडित की पकड़ से बाहर रह गयी हैं— जैसे 244

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