Book Title: Dhammapada 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 234
________________ यात्री, यात्रा, गंतव्य : तुम्हीं तुम्हारी नींद के ही । जैसे एक आदमी सोया है। सपने में खोया है कि कारागृह में बंद है, कि हाथ में जंजीरें पड़ी हैं। वह लाख उपाय करे सपने में जंजीरें रख देने का, क्या फायदा होगा ? सपना नहीं टूट जाएगा। वह छूट भी जाए जंजीरों से, तो भी सपने में ही है। कारागृह से भी निकल जाए सपने में, तो भी सपने में ही है। सपना ही असली कारागृह है। लेकिन जाग जाए, तो फिर हंसने लगे। क्योंकि न कोई बंधन है – जल गए, बचे ही नहीं, राख भी न बची। ऐसे जले कि पीछे कोई निशान भी नहीं छूट गया है। बंधन बेहोशी के हैं । होश है मुक्ति । तो बुद्ध कह रहे हैं, 'जो भिक्षु अप्रमाद में रत है... ' जो धीरे-धीरे जागने में लीन रहने लगा है, जो धीरे-धीरे जागने में डूबने लगा, जो जागने में रस लेने लगा है। 'वह आग की भांति है, वह छोटे-मोटे बंधनों को जलाते हुए बढ़ता है । ' छोड़ता नहीं छोड़ने की क्या जरूरत है ? जहां भी उसकी होश भरी आंख पड़ती है, वहीं बंधन जल जाते हैं। जहां भी उसकी एकाग्र दृष्टि पड़ जाती है, वहीं बंधन गिर जाते हैं। जहां भी वह होश से देखता है, वहीं संसार राख हो जाता है। हिमालय में एक...हिमालय में बसे लोगों में एक कहावत है कि अगर कभी किसी का विवाह हो रहा हो तो संन्यासी को निमंत्रित मत करना । या अगर कभी कोई किसान खेत में बीज बोता हो, तो संन्यासी को आसपास देख ले, कि कोई संन्यासी आसपास तो नहीं। कहावत बड़ी महत्वपूर्ण है। उसका मतलब केवल इतना ही है कि तुम बंधन बना रहे हो। और जाग्रत पुरुष वहां मौजूद हो, कहीं जला न दे। विवाह को हम कहते हैं बंधन | एक संसार बसाया जा रहा है। बैंड-बाजे बज रहे हैं, शहनाई बज रही है । एक सपने का जाल बुना जा रहा है। दो व्यक्ति संसार में उतरने को जा रहे हैं -बड़े सपने लिए। संन्यासी को वहां मत बुलाना । कहावत ठीक कहती है, क्योंकि जागा हुआ आदमी अपने साथ चारों तरफ जागरण की खबर लेकर चलता है। जागा हुआ आदमी, जहां उसकी नजर पड़ जाए वहां बंधन गिर जाते हैं। तो कहीं ऐसा न हो कि ये बिचारे अभी बंधन में बंध ही रहे हैं और कोई संन्यासी की नजर पड़ जाए। यह बात बड़ी मीठी है । यह बात बड़ी मूल्यवान है। जाग्रत पुरुष के बोध में उसके खुद के बंधन तो गिरते ही हैं, जो उसके करीब आने का साहस जुटा लेते हैं उनके भी गिर जाते हैं। सूफी फकीर हुआ हफीज । महाकवि भी हुआ । उसने एक गीत लिखा । गीत, ऐसा लगता है अपनी प्रेयसी के लिए लिखा है । गीत में उसने कहा कि तेरी ठोड़ी पर जो तिल का निशान है, उसके लिए मन होता है बुखारा दे दूं, कि समरकंद ! समरकंद और बुखारा का मालिक उस समय था तैमूरलंग। वह बहुत नाराज हो गया, 221

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