Book Title: Dhammapada 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 250
________________ देखा तो हर मुकाम तेरी रहगुजर में है से तुम्हें लाभ न हुआ, हानि हो गयी; मैंने तुम्हारी जिंदगी को बदला नहीं, पाखंडी कर दिया। तुम रहोगे तो अपने सपने में ही और कहते जाओगे, सपना है। तुम रहोगे तो माया में और माया को गाली देते चले जाओगे। तुम देख सकते हो, तुम्हारे साधु-संन्यासियों को मिल सकते हो, वे वही कर रहे हैं जिसको गाली दिए चले जाएंगे। स्वाभाविक है यह द्वंद्व, क्योंकि जो वे कह रहे हैं वह शास्त्रों से उधार है। वह उन्होंने स्वयं जाना नहीं। सुकरात का बड़ा प्रसिद्ध वचन है : ज्ञान क्रांति है। जिसने जान लिया, वह बदल गया। अगर जानने के बाद भी न बदलो, तो समझना कि जाना ही नहीं। यह तो प्रश्न बिलकुल गलत है कि हम जानते हैं, फिर बदलाहट क्यों नहीं होती? यह तो असंभव है। जिसने जान लिया आग जलाती है, वह आग में हाथ न डालेगा। और अगर डालता हो, तो सिर्फ एक ही प्रमाण देता है कि उसने सुना होगा किसी से कि आग जलाती है, खुद जाना नहीं है। खुद तो वह यही जानता है कि आग बड़ी शीतल है। और अगर एक आग जला देती है तो भी नहीं सीखता, क्योंकि वह सोचता है, जरूरी थोड़े ही है कि दूसरी आग भी जलाती हो। फिर तीसरी भी आग है। जिंदगी में हजार रंग हैं आग के। एक रंग जला देता है, तो दूसरा जलाएगा यह कोई जरूरी थोड़े ही है। वह प्रयोग करता चला जाता है। और धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाता है आग से जलने का। फिर जलने की पीड़ा भी नहीं होती, फिर चमड़ी उसकी इतनी जल चुकी होती है कि जलने की संवेदना भी नहीं होती। क्रोध का पता भी उन्हीं को चलता है जो अभी नए-नए अभ्यास कर रहे हैं। जो पुराने अभ्यासी हैं, उन्हें क्रोध का कोई पता ही नहीं चलता, वे मजे से क्रोध में जीते हैं। जैसे नाली का कीड़ा नाली में जीता है, कुछ पता नहीं चलता। तुम उनसे कहो भी कि यह क्रोध बुरा है, वे कहेंगे कि हम तो बड़े मजे में हैं। सच तो यह है, उन्हें अगर क्रोध करने का मौका न मिले तो बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है। तलफ लगती है। अगर उन्हें दो-चार दिन क्रोध करने का मौका न मिले तो वे पागल हो जाएंगे, वे कुछ न कुछ उपाय खोज लेंगे। वे कहीं न कहीं कोई झंझट खड़ी कर लेंगे। वे किसी न किसी से जाकर जूझ जाएंगे, तभी उनको थोड़ी राहत मिलेगी। वैज्ञानिक कहते हैं कि पूरी मनुष्य-जाति लड़ने को आतुर है। इसलिए तो हर दस वर्ष में एक महायुद्ध की जरूरत पड़ जाती है। इतना क्रोध लोग इकट्ठा कर लेते हैं कि फिर छोटे-मोटे झगड़े से काम नहीं चलता, पति-पत्नी के झगड़े से हल नहीं होता-वह तो रोज चलता रहता है, वह तो अभ्यास है-फिर कोई महायुद्ध चाहिए, जहां सब लपटों में हो जाए, जहां विध्वंस करने की पूरी छूट मिल जाए, जहां लाखों लोग मारे जाएं। तब कहीं दस-पंद्रह साल के लिए आदमी का मन थोड़ा हलका होता है। तुम सोचते हो, हिंदू-मुसलमान इसलिए लड़ते हैं कि उनके धर्म अलग-अलग 237

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