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(२५) जलधिनां तारो यथा, खेले स्वेच्छानावे;
तथा ज्ञानी जम वस्तुमां, खेले ज्ञान स्वभावे. २ पंच वर्णनी माटीने, खाइ बने बे श्वेत; शंखनी पेठे ज्ञानी बहु, निःसंगी संकेत. देखे अज्ञानी बहिर, अंतर देखे ज्ञानी; ज्ञानीना परिणामनी, साक्षी, केवल ज्ञानी. ज्ञानीने सहु श्रास्रवो, संवररुपे थाय; संवरपण अज्ञानीने, आस्रव हेतु सुहाय. पार्श्व प्रभु उपदिश्यो ए, ज्ञान अज्ञाननो नेद; बुद्धिसागर आत्ममां, ज्ञानीने नहीं खेद.
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पार्श्वनाथ स्तवन.
आतम, पार्श्व प्रभुना प्रेमने अंतर धारजो रे लोल० प्रगटे जे जे कषायो चित्तमां, तेहने वारजोरे लोल • प्रभुना जैन धर्ममां शंका, आदि नहीं करोरे लोल०
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