Book Title: Dev Vandana Stuti Stavan Sangrah
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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( १२५ )
जेम प्रभुना दर्शनमां स्थिरता थती, तेम प्रभुजी यानन्द व्यापे बेशजो; आनन्ददाता- भोक्कानी थइ एकता, चढी खुमारी यादी आपे हमेशजो. प्रीतलडो. ३ आत्माऽसंख्य प्रदेशे शीतलता खरी,
अवधूत योगी प्रगटावे सुखकंदजो; औदकिभाव निवारी उपशमआदिथी; टाळे सघळा मोहतणा महाफंदजो. प्रीतलदी. १ गुणस्थानक - निःसरणि चढतो आतमा, उज्ज्वल योगे पामे शिवपुर म्हेलजो;
क्षायिकनावे सुख अनंतुं भोगवे, निजपदमुक्ता धारी करतो स्हेलजो. प्रीतलड). ५ बाह्य - भावनी सर्व उपाधि नासतां,
प्रभु विरहनो नाश थशे निर्धारजो; अनुजवयोगे रंगायो जिनरुपमां, याशुं प्रभुसमा अन्ते जयकारजो. प्रीतलडी. ६ निजगुण स्थिरतामां रंगावुं सहजथी, वस्तुधर्म- ज्ञानादिक तुं आधारजो;
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