Book Title: Davvnimittam Author(s): Rushiputra Maharaj, Suvidhisagar Maharaj Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal View full book textPage 8
________________ 200 नितिशास्त्रम् [VIII उदय होने पर तद्रूप फल प्राप्त करता है, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है । कर्मसिद्धान्त के अनुसार कर्मों की स्थिति और अनुभाग में अन्तर लाया जा सकता है, क्योंकि कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का निमित्त पाकर अपना फल देने में समर्थ होते हैं । तीर्थंकर भगवान को जिन कर्मों का उदय होता है, उनमें एक असातावेदनीय भी है। इसी कारण तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपचार से उनके; ग्यारह परीषह स्वीकार किये हैं। उनका असाता वेदनीय कर्म भी साता में संक्रमित होकर फल देता है। मनुष्यगति में नाना जीवों की अपेक्षा से उदय में आने वाले कर्मों की संख्या १०२ है । प्रतिसमय कर्म उदय में आ रहे हैं। यदि उनका फल भोगना अनिवार्य हो जायेगा, तो अविपाक निर्जरा के और मोक्षमार्ग के कारणों का सेवन करना व्यर्थ हो ठहरेगा। नहीं, कमी में हम अपने पुरुषार्थ के प्रभाव से परिवर्तन ला सकते हैं । बाह्यनिमित्तों को देखकर विशिष्ट श्रुतज्ञान के प्रभाव से उनका फल कर्मों के उदय से पूर्व भी जाना जा सकता है। आगम में श्रुतज्ञान के लिंगज और शब्दज ये दो भेद किये हैं। लिंगज श्रुतज्ञान अर्थ से अर्थान्तर का बोध कराता है। आगामी काल में होने वाली घटनाओं का आज ही संकेत करने वाला होने से ज्योतिषशास्त्र मात्र संकेतशास्त्र है । व्यवहारनिपुण और पुरुषार्थकुशल भव्य ज्योतिषशास्त्र के बल पर कर्मों की गति को जानकर सजग हो जावें, यही इस ग्रन्थरचना का वास्तविक उद्देश्य है । इस ग्रन्थ के संशोधन कार्य में मुझे संघ के साधुओं ने महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया है, उनके ही परिश्रम के फल से इस ग्रन्थ का प्रकाशन सम्भव हुआ है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में मुझे प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से अनेक श्रुतभक्त भव्य श्रावक-श्राविकाओं ने सहयोग प्रदान : किया हैं। उन समस्त सहयोगियों को विशिष्ट श्रुतज्ञान और निर्दोष चारित्ररत्न की प्राप्ति हो, यही मेरा आशीर्वाद है । | आइये इस अपूर्व ग्रन्थ का स्वाध्याय करके ज्ञान का अर्जन करें, जिससे कि धर्मसाधना निर्विघ्न सम्पन्न हो सकें । मुनि सुविधिसागर 100-1Page Navigation
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