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होता जाता है । दृष्टांत तरीके-विंशति स्थानक पूजाद्वारा तीर्थकरनामकर्म-पुण्यप्रकृतिके बंधनेके वीस शुभ निमित्तोंका बोध होता है।
नवपदजीकी पूजासे-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठि जो नमस्कारमंत्रमें नमस्करणीय हैं इनका बोध कराया गया है। साथमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप धर्म-कर्त्तव्य समझाया गया है कि, जिन कर्तव्योंके करनेसे यह जीव पूर्वोक्त पांचोंही परमेष्ठिपदका अधिकारी होता है । अर्थात् नवपदोंमें प्रथमके पांच पद धर्मी हैं और अगले चार पद धर्म हैं। धर्म होवे तभी जीव धर्मी हो सकता है। धर्मी पांच पदोंमें प्रथमके अरिहंत और सिद्ध दो पद देव-ईश्वर-परमेश्वरमें गिने जाते हैं । अगले आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन पद गुरु तरीके माने जाते हैं। मतलब नवपदमें दो पद देव, तीन गुरु और चार धर्म; एतावता देव, गुरु और धर्म इन तीन तत्त्वोंका बोध कियागया है ।
चउसठ प्रकारी पूजाद्वारा अष्ट कर्मका स्वरूप, उनके मूल और उत्तर भेदोंका स्वरूप, किस प्रकार किन किन निमित्तोंसे जीव कौन कौनसा कर्म बांधता है, किस किस कर्मकी कितनी कितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है, उदय-उदीरणा-सत्ता-बंध-ध्रुव-अध्रुव-संक्रमण-अपवर्तन, यावत् निर्जरा
और सर्व कर्मके क्षय होनेपर आरमसत्ताकी प्राप्ति, कर्मरहित होकर जीवकी मुक्तिका होना, संसारबंधनसे सर्वथा निर्मुक्त होना इत्यादि द्रव्यानुयोगरूप तत्त्वज्ञानका संक्षेपसे वीरप्रभुकी पूजाद्वारा बोध कराकर पूज्यकी पूजासे पूजकको कर्मरहित होकर स्वयं पूज्य बननेका उत्साह दरसाया है।
बारां व्रतकी पूजामें प्रभुकी पूजा-स्तुतिद्वारा गृहस्थधर्म-गृहस्थको . स्वीकार करने योग्य बारां प्रकारके नियमका बोध कराया है, और अंतमें धीरे धीरे यह जीव गृहस्थधर्मद्वारा भी अपनी उन्नति करताहुआ मुनिधर्मकी तर्फ झुककर, प्रवृत्तिमार्गसे हटकर, निवृत्तिमार्गमें आकर, परमपद-मोक्षका अधिकारी होजाता है। ऐसा बोध दिया गया है।
पिस्तालीस ४५ आगमकी पूजाद्वारा ११ अंग १२ उपांग ६ छेद ४ मूल १० पयन्ने और नंदिसूत्र तथा अनुयोगद्वार सूत्रमें जो जो पदार्थ ज्ञानी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com