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गयो दुर्गति गुण हारी, ब्रह्मचारी,
भविजन कीजे अर्चना ॥ ती०४॥ सेलक सूरि सुत राजधानी,
चारित्र चूकी हुओ मदपानी। रसवती सरस आहारी, ब्रह्मचारी,
भविजन कीजे अर्चना ॥ ती० ५ ॥ आतम लक्ष्मी निज हित जानी,
रसना जीतो हे भवि प्रानी । वल्लभ हर्ष अपारी, ब्रह्मचारी, भविजन कीजे अर्चना ॥ ती० ६ ॥
('काव्य-मंत्र पूर्ववत्')
पूजा नवमी..
दोहरा। मद्य विषय विकथा सही, निद्रा और कषाय । भवसागरमें डारते, पांच प्रमाद मिलाय ॥१॥. शत्रु त्याग प्रमादको, हो करके हुशियार । आतम सत्ता पामिये, होवे जय जय कार ॥२॥ जीत अपूरव जगतमें, ब्रह्मचर्य परभाव । तिस कारण है आठमी, वाड कही जिनराव ॥३॥ संयम पर जो प्रेम है, ब्रह्मचारी अनगार । अति मात्रा भोजन तजे, होवे भव दधि पार ॥४॥ अति मात्रा आहारसे, आवे उघ अपार । संभव शील विराधना, होवे स्वप्न मझार ॥५॥
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