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(तुम दीनके नाथ दयाल लाल-यह चाल) तुम चिदघन रूप जिनंद चंद तोरे ब्रह्मकी जाउं बलिहारी। देव जगतमें जेते देखे, सबही काम भिखारी ॥१॥ काम बलीको हे प्रभु तुमने, दीनो जडसे उखारी ॥२॥ कामके जीतनको उपकारी, मंत्र दियो अति भारी ॥३॥ कम खाना अरु गमका खाना, होवे सुखी ब्रह्मचारी ॥४॥ आतम लक्ष्मी ब्रह्म प्रभावे, वल्लभ हर्ष अपारी ॥५॥
दोहरा। संजमका निरवाह हो, भोजनका परिमान । अधिका खाना ब्रह्मको, करता है नुकसान ॥ १ ॥ खाटा खारा चरचरा, मीठा विविध प्रकार । रस लालच अधिका भखे, होवे रोग प्रचारं ॥२॥ सेर मापकी हांडिमें, देवे अधिका डार । या फूटे या नाश हो, देखो सोच विचार ॥३॥ ऐसे अधिका खानसे, होवे रोग विकार । या होवे ब्रह्मचर्यका, नाश किसी परकार ॥४॥ ब्रह्मचारी हित कारणे, यह जिनवर उपदेश । भावे भवि जिन पूजिये, जावे सकल कलेश ॥ ५ ॥
१ यथा विषयानुदीरणेन दीर्घकालं संयमाधारदेहप्रतिपालनं भवति तथा कुर्यादित्युक्तं भवति । उक्तं च-आहारार्थ कर्म कुर्याद निन्धं, स्यादाहारःप्राणसम्धारणार्थम् । प्राणा धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् । १ [ आचा०वृ• ] २ अनारोग्यमनायुष्य-मस्वयं चातिभोजनम् ।
भपुण्यं लोकविद्विष्टं, तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥ ५७ ॥ (मनुस्मृति-अ०.२) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com