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चन्द्रप्रभचरितम्
प्रस्तुत महाकाव्य की संस्कृतपञ्जिकाका सम्पादन निम्नलिखित हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर किया गया है
पं० १. ब - यह प्रति ऐ० प० दि० जैन सरस्वती भवन, ब्यावरकी है । यह १२५ इञ्च लम्बेचौड़े ५३ पत्रों ( १०४ पृष्ठों) में समाप्त हुई है । प्रारम्भके १८ पत्रोंपर दोनों ओर १-१ इञ्चका हासिया छूटा है | प्रथम और अन्तिम पत्र एक ही ओर लिखे गये हैं । प्रतिपृष्ठ पंक्तिसंख्या ११-११ ( १२वं पृ० तक ) तथा शेष पृष्ठोंपर १३-१३ है । प्रति पंक्ति अक्षर संख्या प्रायः ४०-४० है । लिपि सुवाच्य है, पर सुन्दर नहीं । कागज पतला, पीले रंगका है । अवस्था जीर्ण-शीर्ण है । इसमें लेखनकाल नहीं दिया गया । आदिभाग - स्वस्ति श्री सरस्वात्ये । श्री श्रुतमुनिमुनये नमः ॥ प्रणम्य वीरं नृसुरासुरस्तुतं प्रकृष्टबोधं विबुधेष्टसन्मतं । करिष्यते शंसयधामभंजिका मायाथ चंद्रप्रभकाव्यपंजिका || अन्तिमभाग — इति चंद्रप्रभकाव्यपंजिकायां अष्टादशः सर्ग्रः समाप्तः || १८ || दशीयगणेऽग्रगण्यः प्रधानः । गुणनन्दी इत्यर्थः || || || | |छ ।
पं० २ ज - यह प्रति श्री महावीर दि० जैन शोधसंस्थान, जयपुरकी है । यह १० X ४ इञ्च लम्बे-चौड़े ८६ पत्रों ( १७० पृष्ठों ) में समाप्त हुई है । दोनों ओर १-१ इञ्चका काली स्याहीका हासिया छूटा है । प्रथम और अन्तिम पत्र केवल एक ही ओर लिखे गये हैं । प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या १० और प्रति पंक्ति अक्षर संख्या प्रायः ३५ है । कागज पुष्ट, पीले रंगका है । 'ब' प्रतिकी भाँति इसमें भी गाढ़ी काली स्याही - का उपयोग किया गया है । अक्षर सुवाच्य एवं सुन्दर हैं । 'ब' प्रतिकी भांति इसमें अशुद्धियोंकी बहुलता नहीं है । इसमें भी लेखनकालका उल्लेख नहीं है । प्रतियोंकी स्थिति व मात्राओंकी आकृति से इतना स्पष्ट है कि 'ज' प्रतिसे 'ब' प्रति प्राचीन है। आदिभाग - ॥ स्वस्ति श्री सरस्वत्यै ॥ श्री श्रुतमुनिमुनये नमः ॥ प्रणम्य वीरं नृसुरासुरस्तुतं प्रकृष्टबोधं विबुधेष्टसन्मतम् । करिष्यते शंशयधामभंजिका मयाथ चंद्रप्रभकाव्यपंजिका ॥ १ ॥ अन्तिमभाग - इति चंद्रप्रभकाव्यपंजिकायां अष्टादशः सर्गः ॥ १८ ॥ देशीयगणेऽग्रगण्यः प्रधानः । गुणनन्दी इत्यर्थः ॥ ॥छ ||श्रीः || || श्रीः ॥ब ॥ 11
सम्पादन पद्धति
[क] शुद्ध पाठ
१. उक्त सातों ह० लि० मूल प्रतियों के पाठों में जो शुद्धतम प्रतीत हुआ, उसे मूलमें रखकर अन्य सभी प्रतियों के, जिनमें एक मुद्रित प्रति भी सम्मिलित है, पाठोंको पृथक्-पृथक् संकेत चिह्नोंके साथ नीचे स्थान दिया गया है । जहाँ उनके पाठोंसे व्याख्यान्तर्गत मूल पाठ और भी अधिक शुद्ध जान पड़ा, वहाँ उसीको मूल में मिलाकर सभी प्रतियोंके पाठोंको पाठान्तरोंमें स्थान दिया गया है, और इसकी सूचना भी वहीं दे दी गयी है । व्याख्याका स्वरूप जैसा भी हो, पर उसकी सबसे बड़ी विशेषता है लगभग पचासी प्रतिशत मूलपाठोंकी शुद्धि । व्याख्या में पहले मूलको स्थान देकर बाद में उसका अर्थ खोला है ।
२. व्याख्याकी तीन प्रतियों में 'आ' और 'श' अपेक्षाकृत प्राचीन हैं, और 'स' अर्वाचीन । 'स' प्रति अपूर्ण है और अशुद्ध भी । अन्य दो प्रतियोंमें अशुद्धियां कम हैं । इन्हीं तीन प्रतियों के आधार पर व्याख्याको शुद्ध बनाने का प्रयास किया गया है। तीनों में जिसका पाठ शुद्ध ज्ञात हुआ उसे यथास्थान रखकर शेष के पाठोंको तत्तत् सङ्केतों के साथ नीचे पाठान्तरोंके रूपमें स्थान दिया गया है ।
कहीं-कहीं अत्यावश्यकता पड़नेपर (
इस कोष्ठक में सम्पादक ने अपनी ओरसे भी लिखा है,
और कहीं-कहीं पाठान्तरोंके साथ नीचे भी, जिसे
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इस चिह्न से पहचाना जा सकता है ।
३. पञ्जिकाकी दो प्रतियोंमें 'ज' अधिक शुद्ध है । 'ज' की तुलना में 'ब' में अधिक पाठ छूटे हुए हैं । दोनों में जिसका पाठ शुद्ध ज्ञात हुआ, उसे यथास्थान रखकर अन्य प्रतिके पाठको संकेत चिह्नके साथ नीचे पाठान्तरोंमें स्थान दिया गया है । जहाँ दोनों के ही पाठ अशुद्ध प्रतीत हुए वहाँ (
) ऐसे कोष्ठक में
सम्पादककी ओरसे नया पाठ प्रस्तुत किया गया है ।
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