Book Title: Chandraprabhacharitam
Author(s): Virnandi, Amrutlal Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

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Page 16
________________ प्रस्तावना चं० च० की संस्कृत व्याख्या-'विद्वन्मनोवल्लभा'का सम्पादन निम्नाङ्कित हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर किया गया है व्या० १. आ-यह जैन सिद्धान्तभवन, आराको प्रति है, जो १३ ४८६ इञ्च लम्बे-चौड़े ३०६ पत्रों ( ६१२ पृष्ठों) में समाप्त हुई है। प्रति पृष्ठ २० पंक्तियां हैं, और प्रतिपंक्ति प्रायः २३ अक्षर हैं। बाईं ओर एक इञ्ची और दाईं ओर आधा इञ्ची हासिया छूटा है। कागज पुष्ट, सफेद रंगका है। इसे दो लेखकोंने पूरा किया है। एकके अक्षर अत्यन्त सुन्दर हैं, और दूसरेके अत्यन्त भद्दे । एकने गाढ़ी चटकीली काली स्याहीसे लिखा, और दूसरेने फीकी नीलो स्याहीसे । आदि भाग-श्री सरस्वत्यै नमः । श्री चन्द्रप्रभाय नमः । श्री चारुकीर्तिमुनये नमः । श्री कामयक्षज्वालामालिन्यै नमः । शुभमस्तु । चन्द्रप्रभसंस्कृतव्याख्यानम् । निर्विघ्नमस्तु । पुष्पिका-इति श्री वीरनंदिकृता उदयांके चन्द्रप्रभचरिते महाकाव्ये तद्वयाख्याने च विद्वन्मनोवल्लभाख्ये प्रथमः सर्गः॥१॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ अन्तिम भाग-शकवर्ष १७६१ नेयविकारिसंवत्सरदमाघ शुद्ध १ डयदल्लश्रीमच्चारुकीर्तिपंडिताचार्यवर्यस्वामियवरपादकमलभंगोपमानियादबेलगुलदयिं वर्गदवशिष्टगोत्रदविजयंणैयनुयीचंद्रप्रभकाव्यदव्याख्यानपुस्तकबरदु संपूर्णवायि तु आचन्द्रार्कपर्यतं भद्रं शुभं मंगलं ॥ यह प्रति डॉ० नेमिचन्द्र जी, आराके सौजन्यसे प्राप्त हुई। व्या० २. श—यह प्रति श्राविकाश्रम, सोलापुरकी है। यह १२३४७ इञ्च लम्बे-चौड़े १७८ पत्रों ( ३५६ पृष्ठों ) में समाप्त हुई है। दोनों ओर २-२ इञ्चका हासिया छूटा है। पंक्तिसंख्या प्रथम पृष्ठपर १५, अन्तिमपर १० और शेषपर १६-१६ है। प्रति पंक्ति अक्षर संख्या कहीं ३८ कहीं ४० और कहीं ५६ भी है। अक्षर सर्वत्र एक-से नहीं है, यद्यपि लेखक एक ही है। कहीं गाढ़ी तो कहीं फीकी काली स्याही का उपयोग किया गया है। पत्रोंपर अङ्क डालने में सावधानी नहीं बरती गयी। कागज पुष्ट, पीले रंगका है, पर बाईं ओरका कोना गल गया है । आदिभाग-श्रीचन्द्रप्रभाय नमः । शुभमस्तु । निर्विघ्नमस्तु ।। वंदेहं सहजानन्दकंदलीकंदबंधुरं चंद्रांक चंद्रसंकाशं चंद्रनाथं स्मराहरं ॥ पुष्पिका-इतिवीरनंदिकृता उदयांके चंद्रप्रभचरिते महाकाव्ये तद्वयाख्याने च विद्वन्मनोवल्लभाख्ये प्रथमः सर्गः ॥ अन्तिमभाग-स्वर्गिणो देवाः। पंचमं परिनिर्वाणाख्यं ।। कल्याणं मंगलकार्य । प्रविधाय । स्वं स्वं स्वकीयं स्वकीयं ॥ पदं स्थानं । अगुः युयुः । लु ॥१५४॥ ॥ इति वीरनंदिकृतावुदयांके चंद्रप्रभचरिते महाकाव्ये तद्वयाख्याने च विद्वन्मनोवल्लभाख्य अष्टादशः सर्गः ॥१९॥ व्या० ३ स-यह अपूर्ण प्रति भी श्राविकाश्रम, सोलापुरकी है। इसमें १३३४८ इञ्च लम्बे-चौड़े १५९ पत्र ( ३१८ पृष्ठ ) हैं । दोनों ओर १-१ इञ्च का हासिया छूटा है । प्रति पृष्ठ पंक्तिसंख्या १५-१५ और प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या प्रायः ३२-३३ है। उक्त दो व्या० प्रतियोंकी भाँति इसमें भी अक्षरोंकी बनावट सर्वत्र एक-सी नहीं है। हासियों, और पूर्ण विरामोंमें गाढ़ी लाल स्याही तथा व्या० लेखनमें चटकीली गाढ़ी काली स्याही प्रयुक्त हुई है। कागज पुष्ट, पीले रंगका है। इसमें आदिके बारह सर्गोंकी व्याख्या है। इसमें भी उपान्त्य ११०वें पद्यकी व्याख्या अधूरी है और अन्तिम १११वें की व्याख्या है ही नहीं। इसमें भी लेखनकाल है। आदिभाग-श्रीचन्द्रप्रभाय नमः । शभमस्तु । निविघ्नमस्तु ॥ वंदेहं सहजानंदकंदलीकंदबंधरं । चंद्रांकं चंद्रसंकाशं चंद्रनाथं स्मराहरं ॥ पुष्पिका-इति वीरनंदिकृता उदयांके चंद्रप्रभचरिते महाकाव्ये तद्वयाख्याने च विद्वन्मनोवल्लभाख्ये प्रथमः सर्गः ॥१॥ अन्तिमभाग-समरं संग्रामं वा । प्रदिशामि । इत्येवं । द्वयाश्रयैः द्वयमवलंबनं आश्रयो येषां तैः । वचनैः वचोभिः । रिपुदूतः रिपोः शत्रोर्दू ( इस प्रतिकी समाप्ति यहीं हो जाती है।)। 'श' तथा 'स' प्रतियोंकी प्रतिलिपि किसी एक ही आदर्श प्रतिसे की गयी है। यदि कहीं थोड़ा-बहुत पाठभेद है भी, तो उसका कारण लिपिककी अनवधानता है। ये दोनों प्रतियाँ ५० बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीके सौजन्यसे प्राप्त हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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