Book Title: Chandraprabhacharitam
Author(s): Virnandi, Amrutlal Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

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Page 14
________________ प्रस्तावना [१] आदर्श प्रतियों का परिचय चन्द्रप्रभचरितम्के प्रस्तुत संस्करण का सम्पादन निम्नांकित हस्तलिखित बारह-मूल (७), संस्कृतव्याख्या (३) और पञ्जिका (२) की प्राचीन प्रतियोंके आधार पर किया गया है मू० १. अ-यह प्रति कारंजाको है। यह ११६४५ इंच लम्बे-चौड़े १३० पत्रों (२६० पृष्ठों) में समाप्त हुई है। दोनों ओर डेढ़-डेढ़ इंच का हासिया छूटा है। प्रति पृष्ठ पंक्ति-संख्या ८-८ है, पर अन्तके दो पृष्ठों पर ९-९ । प्रति पंक्ति लगभग ३५-३६ अक्षर हैं। लिपि सुन्दर एवं सुवाच्य है। इसमें पडिमात्रा या पृष्ठमात्राका उपयोग किया गया है। 'सर्गः'के स्थानमें 'सम्र:' एवं 'च्छ के स्थान में 'छ' लिखा हुआ है। यत्र-तत्र हासियोंमें टिप्पण भी दिये गये हैं। कागज पुष्ट, पीले रंगका है। इसमें कलासनाथस्य""इत्यादि (१.५९), ज्ञानमागमनिरोधि""इत्यादि (७.५२) तथा कविप्रशस्तिका यः श्रीवर्म नृपो बभूव""इत्यादि (६) पद्य नहीं हैं । आदिभाग-ॐ नमः सिद्धेभ्यः । श्रियं क्रियाद्यस्य "इत्यादि । पुष्पिका-इति श्रीवीरनंदिकृतावुदयांके चंद्रप्रभचरिते महाकाव्ये प्रथमः सर्पः ॥१॥छ। अन्तिम भाग-स्वस्ति श्री संवत् १५९१ वर्षे आषाढमासे । कृष्णपक्षे दशम्यां तिथी सोमवासरे श्रीमलसंघे सरस्वतीगछे । बलात्कारगणे श्रीकूदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्रीपद्मनंदिदेवा तत्लट्रे भ० श्रीसकलकोतिदेवाः तत्पटे भ० भुवनकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. ज्ञानभूषणदेवाः तत्पट्टे श्री विजयकीर्तिदेवाः तच्छिष्य श्री ब्र० श्री हंसाख्यः तच्छिष्यब्रह्मराजपालपठनार्थ चंद्रप्रभकाव्यं चिरं तिष्ठतु भूतले । गुरुशिष्ययोः शुभं भूयात् । श्लोक संख्या २३४० ॥ चंद्रप्रभकाव्यम। __ मू० २. आ-यह प्रति कारंजाकी है । १२४५५ इञ्च लम्बे-चौड़े ४८ पत्रों (९६ पृष्ठों) में इसकी समाप्ति हुई है। दोनों ओर एक-एक इञ्चका हासिया छूटा है। प्रति पृष्ठ १६-१६ पंक्तियां हैं, और प्रति पंक्ति ५१-५२ अक्षर हैं । इसमें भी अङ्कों और मात्राओंको आकृति 'अ' प्रतिके समान है। ऊपर और नीचेके रिक्त भागोंमें छोटे-छोटे सघन अक्षरोंमें टिप्पण भी दिये गये हैं। इसमें ग्रन्थकारको प्रशस्तिके पद्य नहीं है। इसका लेखन काल १६४३ है। आदि भाग--ॐ नमो वीतरागाय ॥ ॥ श्रियं क्रियाद्यस्य"इत्यादि । पष्पिका-इति श्री वीरनंदिकृतावदयांके चंद्रप्रभचरिते महाकाव्ये प्रथमः सर्गः ॥छ॥१॥ अन्तिम भाग-इति श्री सिद्धान्तवेदी श्रीवीरणंद्याचार्यकृतौ चंद्रप्रभस्वामीमहाकाव्यं समाप्तमिति । संवत् १६४३ वर्षे एकादशी तिथौ भौमवासरे तुलवदेशे बंगवाटिपत्तने जैनराज्यसुराज्ये शान्तीश्वरचैत्यालये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगछे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये महामुनीश्वरश्रीमहेन्द्रकीर्तिदेवरुश्रीचिक्कमहेन्द्रकीर्तिदेवरुगुरूणां पादपद्माराधकभट्टारकश्रीभुवनकीर्तितछीस्यब्रह्मज्ञानसागरस्वहस्तेन लखितं स्वपठनार्थ कर्मक्षयार्थं । शुभं भवतु कल्याणमस्तु । मंगल महा श्री श्री श्री ॥श्री।। ॥श्री॥ ॥श्री॥ मू० ३. इ-यह प्रति भी कारंजाकी है । यह ११३४५ इञ्च लम्बे-चौड़े ७९ पत्रों (१५८ पृष्ठों) में समाप्त हुई है । प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या ९ (पृ० १४ तक), १० (पृ० १५-३८), ११ (पृ०३९-७४), १० (१०७५-७९) और प्रति पंक्ति अक्षरसंख्या प्रारम्भमें ३७-३८ है पर आगे चलकर ४५-४६ । दोनों ओर एकएक इञ्चका हासिया छूटा है। इसमें भी प्रशस्ति-पद्य नहीं हैं, और न टिप्पण भी। अङ्कों और मात्राओंको आकृति कहीं-कहीं 'अ'-'आ' प्रतियोंके समान भी है। कागज पुष्ट, पीले रंगका है। इसका भी लेखनकाल १६४३ है। आदि भाग-श्रीवीतरागाय नमः । अथ चन्द्रप्रभस्वामिमहाकाव्य लिख्यते । श्रीयं क्रियाद्यस्य""इत्यादि । पुष्पिका-इति विनंदिकृतावुदयांके चन्द्रप्रभचरिते महाकाव्ये प्रथमः सर्गः ॥१॥ अन्तिमभाग-। गद्य ॥ इति श्रीवीरणंदिकृतावुदयांकि चन्द्रप्रभचरित महाकाव्ये निर्वाणगमनो नाम अष्टादशः सर्गाः ॥ * ॥१८॥ इति श्रीसिद्धान्तवेदी श्रीवीरणंद्याचार्यकृातो चन्द्रप्रभस्वामीमहाकाव्य संपूर्ण समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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