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सम्पादकीय
'चन्द्रप्रभचरितम्' की रचना महाकवि वीरनन्दीने विक्रमको ग्यारहवीं शतीके पूर्व भागमें की थी। इसको संस्कृतव्याख्या-'विद्वन्मनोवल्लभा' मुनिचन्द्रने वि० सं० १५६० में और संस्कृत पञ्जिका गुणनन्दीने वि० सं० १५९७ लिखी जो अभी तक अप्रकाशित रहीं।
१६९१ पद्यों में परिसमाप्त प्रस्तुत चरित महाकाव्यमें अष्टम तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभका शिक्षाप्रद जीवनवृत्त प्राञ्जल संस्कृत भाषामें वर्णित है।
चन्द्रप्रभका जन्म वाराणसीके निकट चन्द्रपुरीमें, जो सम्प्रति 'चन्द्रवटो', 'चंदरौटी' या 'चन्द्रौटी' नामसे प्रसिद्ध है, राजा महासेन और रानी लक्ष्मणाके यहाँ हुआ था।
प्रस्तुत महाकाव्य केवल मूल रूपमें सबसे पहले सन् १८९२ में निर्णयसागर प्रेस बम्बई से महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रसाद और पं० वासुदेव शर्माके द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ था।
पं० रूपनारायण पाण्डेय कृत इसका हिन्दीरूपान्तर हिन्दी साहित्य प्रसारक कार्यालय बम्बईसे सन् १९१६ में मुद्रित हुआ था। इसमें मुलग्रन्यको स्थान नहीं दिया गया था।
आरा, कारंजा, जयपुर, दिल्ली, सोलापुर और ब्यावरसे प्राप्त बारह हस्तलिखित प्राचीन प्रतियोंके आधारपर मूल, व्याख्या और पञ्जिकाका सम्पादन करके प्रस्तुत महाकाव्य हिन्दी भावानुवादके साथ अब इस नये परिवेश में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
इस संस्करणकी विशेषताएँ:-१. शुद्ध पाठ; २. संस्कृत व्याख्या; ३. संस्कृत पञ्जिका; ४. मूलानुगामी हिन्दी भावानुवाद; ५. प्रस्तावना; ६. पाठान्तर, टिप्पण तथा परिशिष्ट
आभार:-५० बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने जीवराज ग्रन्थमालासे इसके सम्पादन व अनुवादका कार्य दिलवाया और संस्कृत व्याख्याकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ भी भेजी। डॉ० नेमिचन्द्रजी आरा, पन्नालालजी अग्रवाल देहली, डॉ० कस्तूरचन्द्रजी जयपुर, पं० माणिकचन्द्र जी चवरे कारंजा और पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री ब्यावरने हस्तलिखित प्रतियां भेजीं। पं० मिलापचन्द्रजी-रतनलालजी कटारियाने विबध श्रीधरके 'पासनाथ चरिउ' के कतिपय पद्योंकी चं. च. के पद्योंसे तुलना करके भेजी। पं० कमलाकान्तजी शुक्ल वाराणसीने व्याख्याकारके काल निर्धारणमें साहाय्य प्रदान किया। पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य सागरने समवसरणसे सम्बद्ध नौ पद्योंके अनुवादमें सहयोग दिया। पं० दलसुखजी मालवणिया अहमदाबाद, डॉ. मोहनलालजी मेहता ५.राणसी, अगरचन्द्रजी नाहटा बीकानेर, पं० परमानन्दजी शास्त्री देहली, डॉ० गुलाबचन्द्रजी चौधरी, नवनाला और पं० के० भुजबलोजी शास्त्रो धारवाडने पत्रोंके उत्तर दिये । स्थानीय जैन विद्वानोंने उत्साह बढ़ाया। डॉ० गोकुलचन्द्रजीने कलापूर्ण मुद्रणकी ओर ध्यान दिया। पं. महादेवजी
बेदी, पं. हरगोविन्दजी द्विवेदी, पं० शिवदत्तजी मिश्र और पं० रामाभिलाषजी त्रिपाठी आदि भारतीय ज्ञानपीठके विद्वान पहल. प्रूफ देखा और कम्पोजीटर महावीरजी आदिने कम्पोज करने में सावधानी बरती। . .एव इन सभी महानुभावोंका हृदयसे आभारी हूँ।
मेरे ऊपर सबसे अधिक आभार डॉ० ए० एन० उपाध्यका है, जिन्होंने सम्पादन सम्बन्धी अनेक सूचनाएँ भेजी, प्रारम्भके पांच फार्मों के प्रूफ स्वयं देखे, पूरी प्रस्तावना पढ़कर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये और बीच-बीच में न जाने कितने पत्र भेजकर उत्साहकी मात्राको बढ़ाया। अतएव में आपका कृतज्ञ हैं।
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