Book Title: Chaitanya Chamatkar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ सम्यग्ज्ञानदीपिका बहुचर्चित पुस्तक सम्यग्ज्ञानदीपिका' को लेकर कतिपय निहित स्वार्थों द्वारा समाज में अनेक भ्रम फैलाए जा रहे हैं। उनके समुचित समाधान हेतु आत्मधर्म के सम्पादक द्वारा पूज्य श्री कानजी स्वामी से सोनगढ़ में दिनांक १६.१०.७६ को लिया गया एक इन्टरव्यू आत्मधर्म के जिज्ञासु पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है। सम्यग्ज्ञानदीपिका में न लगाकर बैर-विरोध में लगाना, यह तो मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी हार है। हम तो किसी से बैर-विरोध रखते नहीं। कोई रखो तो रखो, उसमें हम क्या कर सकते हैं ? हमारी दृष्टि में तो सभी आत्माएँ समान हैं, सभी भगवानस्वरूप हैं । पर्याय में जो अल्पकाल की भूल है, वह भी अल्पकाल में निकल जानेवाली है। और भूल भरी आत्मा तो करुणा की पात्र है, न कि विरोध की पात्र । अत: हम तो किसी से बैर-विरोध रखते नहीं। जब उनकी आध्यात्मिक विभोरता को भंग करते हुए मैंने कहा - विरोध तो सम्यग्ज्ञानदीपिका को लेकर है, तब वे बोले - सम्यग्ज्ञानदीपिका को लेकर है तो हमसे क्यों कहते हो ? क्षुल्लक धर्मदासजी से कहें । वह उन्होंने बनाई है, मैंने तो बनाई नहीं। प्रश्न : आपने बनाई तो नहीं, पर छपाई तो है ? उत्तर : वह तो हमारे जन्म से ढाई माह पूर्व स्वयं क्षुल्लक धर्मदासजीनेछपाईथी। ८७ वर्षपूर्वपण्डित श्रीधर शिवलालजी के ज्ञानसागर छापखाना, बंबई में वि.सं. १९४६ माघ शुक्ला १५ मंगलवार को सर्वप्रथम छपी थी, और हमारा जन्म वि. सं. १९४७ (गुजराती १९४६) वैशाख शुक्ला दोज को हुआ था । यह पुस्तक हमें वि. सं. १९७८ में मिली जो आज भी "कौन किसका विरोध करता है, अज्ञानवश सब अपना ही विरोध करते हैं।" उक्त मार्मिक शब्द पूज्य श्री कानजी स्वामी ने तब कहे जब उनसे पूछा गया कि सम्यग्ज्ञानदीपिका को लेकर कुछ लोग आपका बहुत विरोध कर रहे हैं। बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा - भाई! मैं तो ज्ञानानन्द स्वभावी एक अनादि-अनन्त ध्रुव आत्मा हूँ। मुझे वे जानते ही कहाँ हैं, यदि वे मुझे वास्तविक रूप से जान लें तो विरोध ही न करेंगे। विरोध करनेवाले अपनी पर्याय में अपनी आत्मा का ही विरोध कर रहे हैं। इस अमूल्य मनुष्य जीवन को आत्महित * 'आत्मधर्म', नवम्बर १९७६ से साभार उद्धृत (9)

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