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चैतन्य चमत्कार उदाहरण दिया है। समयसार की आत्मख्याति टीका' में आस्रव को अशरण सिद्ध करने के लिए भोगकाल में वीर्यमोक्षण का उदाहरण दिया है। और भी सैकड़ों इस प्रकार के कथन जिनागम में उदाहरण के रूप में मिल जावेंगे।
कहाँ-कहाँ से हटाओगे, क्या-क्या हटाओगे?
प्रश्न : लोग तो कहते हैं कि आपने शास्त्रों को बहुत कुछ बदल दिया है, फिर इसे बदलने में क्या है ?
उत्तर : लोगों के कहने की हम क्या कहें, वे तो न जाने क्या-क्या कहते हैं ? हमने तो कहीं भी, कुछ भी नहीं बदला है। अपने को ही बदला है और दिगम्बर जिनवाणी के अनुसार अपने को, अपनी मान्यता को बनाया है।
प्रश्न : पहले जो आपसे बम्बई में इन्टरव्यू लिया था और जुलाई के आत्मधर्म में दिया था, उसका लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा है। कुछ लोगों ने जो समाज में
आपके बारे में भ्रम फैला रखे थे, वे काफी दूर हो गए हैं। इस सम्बन्ध में मेरे पास सैकड़ों पत्र आए हैं, कुछ तो आत्मधर्म में पाठकों के पत्रों के रूप में प्रकाशित भी किए हैं। लोगों का आग्रह है कि इसप्रकार के इन्टरव्यू यदि समय-समय पर आप देते रहें और वे विभिन्न पत्रों में प्रकाशित होते रहें तो बहुत से भ्रम साफ होते रहें।
उत्तर : भाई ! हम तो इन्टरव्यू-विन्टरव्यू कुछ जानते
सम्यग्ज्ञानदीपिका नहीं और न हम किसी से प्रश्नोत्तर के चक्कर में ही पड़ते हैं। हम तो अपनी आत्मा की आराधना को ही सब कुछ समझते हैं। तुमने प्रेम से जिज्ञासापूर्वक पूछा था सो उस समय जो कुछ याद था सो कह दिया, अभी पूछा सो अभी कह दिया।
आत्मधर्म में या और किसी अखबार में छपाना-वपाना हमारा काम नहीं। अखबारों की बात अखबारवाले जानें।
प्रश्न : आत्मधर्म तो आपका ही पत्र है। उसमें तो....
उत्तर : हमाराक्या? हाँ, हमारीकहीतत्त्वचर्चा उसमें छपती है, पर क्या उसे हम देखते हैं ? आप जानें, रामजी भाई जानें।
प्रश्न : यह इन्टरव्यू भी आत्मधर्म में छापना चाहते हैं ?
उत्तर : कह दिया न कि हमें क्या ? छापना-छपाना तुम्हारा काम है। जो तुम जानो सो करो। हमें तो जो कहना
था सो कह दिया। ____ पण्डितजी ! सही बात तो यह है कि लोक-संग्रह में पड़ना ही क्यों ? यह महादुर्लभ मनुष्य भव और परम सत्य दिगम्बर धर्म प्राप्त हुआ है तो इसे यों ही विकल्पजाल में उलझे रहकर गँवा देना उचित नहीं है । इसमें समय रहते आत्मा का अनुभव प्राप्त कर लेना और उसमें ही जमे रहना कर्त्तव्य है और तो सब कुछ ठीक्या अजमें यहा समजवुतेह।
त्याँ त्याँ ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ।।
-श्रीमद राजचन्द्र
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