Book Title: Chaitanya Chamatkar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 28
________________ चैतन्य चमत्कार ५२ चाहिए; तथापि समस्त सदाचार की शोभा आत्मज्ञान से है, आत्मश्रद्धान से है, आत्मानुभूति से है।" “और सम्यक्चारित्र ?" “सम्यक्चारित्र तो साक्षात् धर्म है, मुक्ति का साक्षात् कारण है; किन्तु वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना नहीं होता।" “शुद्धभाव तो इस जमाने में होता नहीं और शुभभाव आप छुड़ाते हैं, तो क्या अशुभभाव में रहना ?" “कौन कहता है कि शुद्धभाव इस समय में नहीं होता ? साक्षात् धर्म तो वीतरागभावरूप शुद्धभाव ही है। शुद्धभाव नहीं होने का अर्थ यह है कि इस युग में धर्म नहीं होता, जबकि शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि शुद्धभावरूप चारित्रधर्म का सद्भाव तो पंचमकाल के अन्त तक रहेगा। और यह भी कौन कहता है कि हम शुभभाव छुड़ाते हैं? हम तो शुभभाव को धर्म मानना छुड़ाते हैं। रागरूप होने से वह धर्म है भी नहीं। क्योंकि धर्म तो वीतरागस्वरूप है । शुभराग की सत्ता को भूमिकानुसार मुनिराज के भी होती है, किन्तु शुभराग को धर्म सम्यग्दृष्टि ज्ञानी भी नहीं मानता । शुभराग का होना चारित्र की कमजोरी है, जबकि शुभराग को धर्म मानना मिथ्यात्व नामक महापाप । १. समयसार कलश. ५१ (28) वह तो नाममात्र का भी जैन नहीं ५३ भभावको धर्म मानना छुड़ाकर आचार्यदेव मिथ्यात्व नामक महापाप को छुड़ाते हैं, शुभभाव को नहीं।" “तो शुभभाव तो करना चाहिए ?” " चाहिए का प्रश्न कहाँ उठता है ? ज्ञानी धर्मात्मा को भूमिकानुसार शुभभाव आता ही है, किन्तु वह उसे धर्म नहीं मानता। शास्त्रों में भी जहाँ कहीं शुभभाव को व्यवहार से धर्म कहा है, वह कथन उपचरित कथन है। वास्तविक (निश्चय) धर्म तो शुभाशुभभाव के अभावरूप शुद्धभाव ही है।" “शुभ को छोड़कर अशुभ में जाना तो अच्छा नहीं ?” “बिलकुल नहीं, पर जिसप्रकार शुभ को छोड़कर अशुभ में जाना अच्छा नहीं; उसीप्रकार शुभ को धर्म मानना भी अच्छा नहीं । इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।" प्रतिष्ठा में प्राप्त प्रतिमाओं पर अंकन्यास- विधि सम्पन्न र जाने के लिए उनका समय हो गया था। अतः "अभी और समय नहीं है, ना हो तो फिर कभी प्राकर क्लब सेबाने सती में साद सहित हमार कन कर दियसम्यग्दर्शन का सेवन न करे, शास्त्रस्वाध्याय न करे, धर्मात्मा की सेवा न करे और कषायों की मन्दता न करे तो इस जीवन में तूने क्या किया ? - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी

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