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चैतन्य चमत्कार जो भावी पर्यायें सर्वज्ञ के ज्ञान में जैसी आई हैं वे वैसी ही होंगी, उनमें कोई फेरफार सम्भव नहीं है। ___केवलज्ञान (सर्वज्ञता) का निर्णय अर्थात् अर्हन्त का निर्णय । प्रवचनसार गाथा ८० में आता है कि अर्हन्त भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है, उसका मोह नाश होता है।
हमें त्रेसठ वर्ष पहिले फाल्गुन सुदी १४ के दिन यही भाव अन्दर से आया था । शब्द ख्याल में नहीं थे, वाचन भी नहीं था, पर भाव यही ख्याल में आया था।"
प्रश्न : “केवली भगवान भूत-भविष्य की पर्यायों को द्रव्य में योग्यतारूप जानते हैं अथवा उन पर्यायों को वर्तमानवत् प्रत्यक्ष जानते हैं ?"
उत्तर : "प्रत्येक पदार्थ की भूत और भविष्यकाल की पर्यायें वर्तमान में अविद्यमान-अप्रगट होने पर भी सर्वज्ञ भगवान उन्हें वर्तमानवत् प्रत्यक्ष जानते हैं। अनन्त काल पहले हो चुकी भूतकाल की पर्यायें और अनन्तकाल पश्चात् होनेवाली भविष्य की पर्यायें अविद्यमान होने पर भी उन्हें केवलज्ञान वर्तमान की तरह प्रत्यक्ष जानता है।
अहाहा ! जो पर्यायें हो चुकीं और होनेवाली हैं; ऐसी भूत-भविष्य की पर्यायों को प्रत्यक्ष; जाने उस ज्ञान की दिव्यता का क्या कहना ? केवली भगवान भूत-भविष्य की
क्रमबद्धपर्याय पर्यायों को द्रव्य में योग्यतारूप जानते हैं - ऐसा नहीं है। किन्तु उन सभी पर्यायों को वर्तमानवत् प्रत्यक्ष जानते हैं, यही सर्वज्ञ केज्ञान की दिव्यता है। भूत-भविष्य की अविद्यमान पर्यायें केवलज्ञान में विद्यमान ही हैं। ओहो! एक समय की केवलज्ञान की पर्याय की ऐसी विस्मयता और आश्चर्यता है, तो पूरे द्रव्य की सामर्थ्य कितनी विस्मयपूर्ण और आश्चर्यजनक होगी? उसका क्या कहना?
अहाहा! पर्याय का गुलाट मारना यह कोई छोटी बात है ? पर्याय तो अनादि से पर में ही जा रही है, उसको पलटकर अन्दर में ले जाना है। गहराई में ले जाना महान पुरुषार्थ का कार्य है। परिणाम में अपरिणामी भगवान के दर्शन हो जायें - यह पुरुषार्थ अपूर्व है।"
प्रश्न : “केवली भगवान निश्चय तो केवल अपने आपको जानते हैं, पर को तो वे व्यवहार से जानते हैं, ऐसा नियमसारमेंकहाहै।और समयसारमेंव्यवहारकोझूठाकहा है।
झूठा अर्थात् असत्यार्थ ...... इसका अर्थ क्या ?"
उत्तर : "व्यवहार है ही नहीं - ऐसा उसका अर्थ नहीं है। व्यवहार जानने लायक है - ऐसा १२वीं गाथा में कहा है। वह जाना हुआ प्रयोजनवान है। सर्वथा झूठा नहीं है. उसे गौण करके असत्यार्थ कहा है। प्रवचनसार की टीका में पाण्डे हेमराजजी ने कहा है कि व्यवहार को गौण करके असत्य कहा है, अभाव करके असत्य नहीं कहा है।"
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