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चैतन्य चमत्कार
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नहीं, किन्तु जानता है, गजब बात है । "
प्रश्न : "जब कुछ करना ही नहीं है तो फिर आप आत्मा का अनुभव करने का, ज्ञायकस्वभाव के सन्मुख दृष्टि का उपदेश क्यों देते हैं ?"
उत्तर : "हम कहाँ देते हैं उपदेश ? वाणी तो जड़ है, अत: जड़ के कारण निकलती है। परमपूज्य अमृतचन्द्राचार्य देव आत्मख्याति के अन्त में लिखते हैं कि टीका हमने लिखी है ऐसा जानकर मोह में मत नाचो। यह तो अक्षरों और शब्दों की परिणति है, हमारी नहीं। भाषा तो हमारी है ही नहीं, समझाने के विकल्प को भी मात्र जानते हैं और वह भी व्यवहार से, निश्चय से तो हम मात्र अपने को जानते हैं।" प्रश्न : “सभी गुणों का कार्य व्यवस्थित ही है तो फिर पुरुषार्थ करना भी रहता नहीं ?"
उत्तर : "जिसको क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ भासित नहीं होता, उसको व्यवस्थितपना बैठा ही कहाँ है ?"
प्रश्न : " उसको व्यवस्थितपने का श्रद्धान नहीं हुआ तो उसका वैसा परिणमन भी तो व्यवस्थित ही है । वह व्यवस्थितपने का निर्णय नहीं कर सका, यह बात भी तो व्यवस्थित ही है। ऐसी दशा में निर्णय करने की कथा करना व्यर्थ ही है ?"
उत्तर : "उसका परिणमन व्यवस्थित ही है ऐसी
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क्रमबद्धपर्याय
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उसे खबर कब है ? परिणमन व्यवस्थित है ऐसा सर्वज्ञ ने कहा है, परन्तु उसे सर्वज्ञ का निर्णय ही कहाँ है ? प्रथम यह सर्वज्ञ का निर्णय तो करे ? पश्चात् उसे व्यवस्थित की खबर पड़े।"
प्रश्न : “व्यवस्थित परिणमनशील वस्तु है, इसप्रकार भगवान के कथन की श्रद्धा उसे है ?"
उत्तर : "नहीं, सर्वज्ञ भगवान का सच्चा निर्णय उसको कहाँ है ? पहले सर्वज्ञ का निश्चय हुए बिना व्यवस्थित का निर्णय कहाँ से आया ? मात्र ज्ञानी की बातें सुन-सुनकर वैसा-वैसा ही कहे तो इससे काम नहीं चलेगा, प्रथम सर्वज्ञ का निर्णय तो करो। द्रव्य का निर्णय किये बिना सर्वज्ञ का निर्णय वास्तव में हो ही नहीं सकता।"
प्रश्न : " आप समझाते भी जाते हैं और कहते भी जाते हैं कि हम कहाँ समझाते हैं ?'
उत्तर : "कौन समझाता है ? कहा न कि भाषा के कारण भाषा होती है, विकल्प के कारण विकल्प होता है और उसी समय भाषा और विकल्प का ज्ञान अपने कारण होता है। उसमें हमारा कर्तापन कहाँ रहा ?"
प्रश्न : " इसीलिए तो लोग कहते हैं कि आपकी करनी और कथनी में अन्तर है ?"
उत्तर :
" (अत्यन्त गम्भीर होकर) वस्तुस्वरूप ऐसा है,