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चैतन्य चमत्कार दुःख छोड़ने की बात कह रहे हैं; आनन्द छोड़ने की नहीं। आनन्द तो अपनी आत्मा में है। जब हम आत्मा का आश्रय लेंगे, आत्मा का अनुभव करेंगे, तब आनंद की प्राप्ति होगी।
यह बात तो पूर्णत: सत्य ही है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का भला-बुरा नहीं करता, पर जब यह आत्मा अज्ञान दशा में पर के लक्ष्य से स्वयं राग-द्वेष-मोहरूप भाव करता है, तब स्वयं दुःखी होता है । यद्यपि परपदार्थ सुख-दुःख के कारण नहीं हैं, तथापि उनके सेवन का राग तो दुःखरूप है, दुःख का कारण है। अभक्ष्य पदार्थ राग के आश्रयभूत निमित्त हैं, अत: उनके प्रति राग छोड़ना इष्ट है। राग छूटने पर वे स्वयं छूट जाते हैं, अत: यह भी कहा जाता है कि उन्हें छोड़ा। __एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं - यह बात भोगों की पष्टि के लिए नहीं कही जाती, अपितु वस्तु के सही स्वरूप को बताने के लिए कही जाती है।
जो व्यक्ति इस महान सिद्धान्त से भोग की पुष्टि निकाले उसके लिए हम क्या करें? वह तो ऐसी बात सुनने का भी पात्र नहीं है।"
जब उन्होंने यह कहा तो मैंने तत्काल बात को पकडते हुए कहा - "इसीलिए तो कहते हैं कि आप अपात्रों को ऐसी बातें क्यों समझाते हैं ?" ____ मुस्कुराते हुए बोले - “हम अपात्रों को कहाँ समझाते हैं ? हम तो तुम जैसे पात्रों को समझाते हैं। जो हमारी बातों को यहाँ-वहाँ से सुनके उल्टा-सीधा अर्थ निकालते हैं, वे
वह तो नाममात्र का भी जैन नहीं हमारे पास आते ही कहाँ हैं ?
समय निकालकर जो हमारे पास आते हैं. महीनों रहते हैं, ऐसे पात्र जीवों को भी न बतावें तो किसे बतावें?
हमारे पास आनेवालों ने तो कभी ऐसा अर्थ निकाला नहीं।"
तो ठीक है जो आपके पास सोनगढ़ आते हैं, महीनों रहते हैं, उनसे ही यह बातें कहा करें। जब आप बाहर जाते हैं, वहाँ क्यों कहते हैं ?"
"हम जहाँ भी जाते हैं, हमें सुनने तो पात्र जीव ही आते हैं, क्योंकि सब जानते हैं कि हमारे पास कोई राग-रंग की बात तो है नहीं । हमारे पास तो शुद्ध आत्मा की बात है। उसे सुनने ही जो आते हैं, उन्हें हम सुनाते हैं। अत: हम चाहे जहाँ हो. सोनगढ में या बाहर कहीं भी, हमारे पास तो एक ही बात है, सो वही सबसे कहते हैं।"
“आप यह भी तो कहते हैं कि कोई किसी को समझा नहीं सकता, फिर भी आप समझाते हैं? प्रवचन करते हैं?"
“कोई किसी को समझा नहीं सकता - यह बात पूर्णत: सही है, हमारी बात तो बहुत दूर भगवान भी नहीं समझा सकते, यदि समझा सकते होते तो फिर आज दुनिया में कोई नासमझ नहीं रहता। भगवान जैसे समझाने वाले मिले, यह जगत तो फिर भी ना समझा, फिर हमारी क्या विसात् ?
हम तो सभी को समझाना चाहते हैं, पर जो स्वयं
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