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चैतन्य चमत्कार
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वचन- विवाद नहीं करना चाहिए।
वाद-विवाद से पार पड़ने वाली नहीं है। यह तो हम पहिले से ही जानते थे । अतः हम तो सदा इससे दूर ही रहे, वाद-विवाद में कभी पड़े ही नहीं।"
जब वे रुके तो मैंने तत्काल कहा -
"प्रश्न वाद-विवाद का नहीं, चर्चा करने का है। वादविवाद में मत पड़िये । कौन कहता है कि आप वाद-विवाद में पड़िये ? पर आप तत्त्वचर्चा से क्यों इन्कार करते हैं ?"
"चर्चा तो यहाँ प्रतिदिन होती है, शाम को ४५ मिनिट । पर जिस तरह की चर्चा की लोग बात करते हैं, वह तत्त्व चर्चा नहीं, वह वीतराग चर्चा नहीं; वह तो वाद-विवाद ही है। वे लोग बात तो चर्चा की करते हैं और करना चाहते हैं वाद-विवाद । "
वे कह ही रहे थे कि मैंने कहा- “आप वीतराग चर्चा ही करिये, तत्त्वचर्चा ही करिये; पर इन्कार तो न करिए।"
"भाई ! इस चर्चा के लिए हमने कब इन्कार किया। देखो तुमसे कर ही रहे हैं, इन्कार कहाँ कर रहे हैं ? तात्त्विक चर्चा तो यहाँ बहुत होती है। आत्मधर्म में ज्ञानगोष्ठी में छपती भी रहती है।"
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"हमसे तो करते हैं पर .....
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अब हम क्या चर्चा करें ?
"तुमसे ही क्यों हम तो सबसे करते हैं। सहजभाव से जो आता है, समझने की दृष्टि से जो पूछता है; उसे हम जो कुछ जानते हैं, बाते ही हैं, मना कब करते हैं ?"
"लोग तो यही कहते हैं कि आप तो किसी से बात ही नहीं करते। अखबारों में भी यही छप रहा है । "
"भाई! लोगों की हम क्या कहें ? और छापने वालों की छापनेवाले जानें।”
"लोगों की यह भी शिकायत है कि आप अपनी ही कहे जाते हैं, दूसरों की सुनते ही नहीं हैं। " "तुम्हारी सुन रहे हैं न ?”
" मेरी बात नहीं, और लोगों के विचार भी तो सुनना चाहिए। विचारों का आदान-प्रदान तो होना ही चाहिए।"
जब मैंने यह कहा तब वे कहने लगे -
“सुनो भाई ! वे जो कुछ कहना चाहते हैं, वह सब अखबारों में लिखते ही हैं, उसे हम जानते ही हैं; और हम जो कहते हैं, वह भी बहुत कुछ छप चुका है, वे भी उसे पढ़ते ही होंगे। विचारों का आदान-प्रदान तो इस तरह हो ही जाता है।
विचारों का आदान-प्रदान ही न होता तो चर्चा की बात ही क्यों उठती ?"
निराश-सा होकर जब मैंने अन्तिम प्रयास करते हुए कहा – “यदि एक बार चर्चा हो जाती तो शायद कुछ न