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हम तो उनके दासानुदास हैं
"स्वामीजी मुनि विरोधी हैं, नया पंथ चला रहे हैं" आदि न जाने कितनी बे-सिर-पैर की अफवाहें आजकल बुद्धिपूर्वक उड़ाई जा रही हैं।
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार समाज तक पहुँचे, इस पवित्र भावना से सम्पादक आत्मधर्म द्वारा दि. २७.१२.१९७७ को सोनगढ़ में स्वामीजी से लिया गया यह चौथा इन्टरव्यू आत्मधर्म के जिज्ञासु पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है।
हम तो उनके दासानुदास हैं प्रश्न ही कहाँ उठता है। शुद्धोपयोग की भूमिका में झूलते हुए नग्न दिगंबरपरपूज्य मुनिराज तो एक प्रकार से चलतेफिरते सिद्ध हैं, हम तो उनके दासानुदास हैं।
उनकी चरणरज अपने मस्तक पर धारण कर कौन दिगम्बर जैन अपने को भाग्यशाली नहीं मानेगा?"
कहते-कहते जब वेभावमग्न हो गयेतब मैंने उनकी मग्नता को भंग करते हुए कहा - "आजकल कुछ लोगों द्वारा यह प्रचार बहुत जोरोंसे किया जारहा है कि आप मुनि विरोधी हैं।"
तब वे अत्यन्त गम्भीर हो गये और बोले -
"मुनिराज तो संवर और निर्जरा के मूर्तिमान स्वरूप हैं। मुनि विरोध का अर्थ है - संवर और निर्जरा तत्त्व की अस्वीकृति । जो सात तत्त्वों को भी न माने वह कैसा जैनी ? हमें तो उनके स्मरण मात्र से रोमांच हो आता है। ‘णमो लोए सव्वसाहणं' के रूप में हम तो सभी त्रिकालवर्ती मुनिराजों को प्रतिदिन सैकड़ों बार नमस्कार करते हैं।"
"आजकल यह भी कहा जा रहा है कि आप पार्श्वनाथ भगवान की फणवाली मूर्ति को नहीं पूजते, पूज्य नहीं मानते
और उन्हें पानी में विसर्जित करने की प्रेरणा देते हैं - क्या यह बात सच है ?"
"भाई ! क्या बात करते हो ? यहाँ सोनगढ़ के मूल मन्दिर में ही भगवान पार्श्वनाथ की फणवाली मूर्ति है। वह
"मुनिराज ता चलत-फिरते सिद्ध हैं, हम तो उनके दासानुदास हैं।"
उक्त शब्द पूज्य स्वामीजी ने तब कहे तब उनसे पूछा गया कि कुछ लोग कहते हैं कि आप मुनिराजों को नहीं मानते, उनका अपमान करते हैं, उनकी निन्दा करते हैं।
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा -
"अपमान तो हम किसी का भी नहीं करते, निंदा भी किसी की नहीं करते; फिर मुनिराजों की निंदा करने का तो
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