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चैतन्य चमत्कार ऊपर स्वसम्यक्ज्ञानमयि परब्रह्म परमात्मा है स्यात् सो पुरुष परकर्म वसात् दोष बी धारण करै तो तापुरुष कू दोष लागते नाहीं। बड़े का शरण लेणे का ये ही फल है।"
तब वे कहने लगे - देखो वे तो आत्मानुभव की महिमा बता रहे हैं। इसमें व्यभिचार का पोषण कैसे हो गया
प्रश्न: आपने कहा वह बात तो ठीक है, पर ऐसा खोटा दृष्टान्त भी क्यों दिया?
उत्तर : लो, अब उन्होंने ऐसा दृष्टान्त भी क्यों दिया - यह भी मैं बताऊँ। फिर दृष्टान्त में भी खोट कहाँ है ? खोट तो दोष देखने वालों की नजर में है।
प्रश्न : साफ लिखा है 'दोष लागते नाहीं।'
उत्तर : 'दोष लागते नाहीं का अर्थ है 'कोई दोष देवै नाही' अर्थात् दुनियाँ में उसे कोई दोष नहीं देता, उसकी बदनामी नहीं होती । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह दोषी नहीं है। पर-पुरुष से रमण करने वाली तो पापी है ही, पर उसका पाप खुलता नहीं है, बस बात इतनी सी है, क्योंकि उसका पति विद्यमान है।
तथा ध्यान से देखो उसमें 'स्यात्' शब्द पड़ा है, जिसका अर्थ कदाचित् होता है अर्थात् आशय यह है कि उसकी
सम्यग्ज्ञानदीपिका भावना पर-पुरुष से रमण करने की नहीं है, पर कदाचित् प्रसंगवश बलात्कार आदि के कारण गर्भ भी रह जाए तो कोई उसे दोष नहीं देता। 'बड़े की शरण लेने का यही फल है' का आशय पति की उपस्थिति से है।
प्रश्न : 'दोष लागते नाहीं' का अर्थ 'दोष देवै नाहीं' आपने कैसे किया?
उत्तर : हमने किया नहीं, ऐसा ही अर्थ है। क्षुल्लक धर्मदासजी की इसके एक वर्ष पहले उनके द्वारा ही बनाई गई पुस्तक 'स्वात्मानुभव मनन एवं भाषा वाक्यावली' में भी यह दृष्टान्त दिया गया है । दृष्टान्त हूबहू है, पर उसमें लागते नाहीं' की जगह पर 'देवै नहीं लिखा है। इससे प्रतीत होता है कि उनका आशय लागते नाहीं से देवै नाहीं का ही है।
उक्त पुस्तक भी मुझे दिखाते हुए कहा, लो देखो । मैंने देखा तो भाषा वाक्यावली' पृष्ठ चार पर इस प्रकार लिखा था
"जैसे जिस स्त्री का शिर के ऊपर भरतार है स्यात् पर पुरुष का निमित्त सैं वा स्त्री गर्भबी धारण करै तो बी उसकू कोई दोष देव नाहीं । तैसे ही जिसके मस्तक ऊपर अरिहंत गुरु है वो पर पदार्थ के निमित्त सैं कोई दोष बी धारण करैगो तो उनकू दोष नाहीं लागै। बड़े का शरण लेणे का ये ही फल है।"
मैं उक्त पंक्तियाँ पढ़ ही रहा था कि अत्यन्त भावुक होते
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