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से ही संभव है अतः उसके कार्यभूत मिथ्या ज्ञान निवृत्ति से जन्यय होने के कारण परम्परया पुरुष प्रयत्न साध्य होने से पुरुषार्थ है।
न्याय और वैशेषिक दोनों दर्शन यह मानते हैं कि मोक्ष की अवस्था में आत्मा के साथ शरीर का और शरीर का मन से सम्बन्ध नहीं रहता है क्यों कि उस समय सारे संस्कार समाप्त हो चुके रहते हैं उस समय न तो किसी प्रकार का ज्ञान होता है न सुख, दुःख होता है। इसमें दुःखों का अभाव होता है। नैषधकार श्री हर्ष ने इस मोक्षावस्था का उपहास अपने ग्रन्थ तैषधचरितं में किया है और कहा है कि मनुष्य इसमें तो पाषाणकल्प हो जाता है। यथा – मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचसचेतसाम ।
गोतमंतमेवेतैव यथा वित्थ तथैव सः ।। न्यायवैशेषिक सम्मत मुक्ति के सम्बन्ध में ये निर्विवाद रुप से अज्ञानमूलक हैं। "भारतीय दर्शन की प्रमुख समस्याएं" नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि- "न्यायवैशेषिक सम्मत मुक्ति के सम्बन्ध में युक्तियां निर्विवाद रूप से अज्ञानमूलक हैं जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरुप ज्ञात है वह ऐसी बात कभी नहीं कर सकता, क्यों कि पाषाण में चैतन्य का उत्पत्तिस्थल होने की योग्यता नहीं होती, उसमें कभी भी ज्ञान का उदय नहीं होता, किन्तु आत्मा में चैतन्य के उदय की सहज योग्यता है, शरीर आदि का सम्पर्क होने पर उसमें ज्ञान का जन्म होता ही है। मोक्षावस्था में भी उसकी यह योग्यता समाप्त नहीं हो जाती है यदि उस अवस्था में भी उसे शरीर आदि का सम्पर्क प्राप्त हो तो उसमें ज्ञान का उदय यथापूर्व पुनः हो सकता है किन्तु शरीर आदि के साथ आत्मा का सम्बन्ध कराने वाले धर्म-अधर्म के न रहने से यह योग नहीं प्राप्त होता, अतएव उस अवस्था में आत्मा मे ज्ञान का उदय नहीं होता किन्तु वह ज्ञान का