Book Title: Bramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Author(s): Vandanadevi
Publisher: Ilahabad University

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Page 321
________________ खण्डन करते हुए अद्वैत मत का समर्थन किया। अद्वैत मत का विश्लेषण अपने तीन ग्रन्थों तत्वप्रदीपिका, न्याय मकरन्द टीका, और खण्डनखण्डखाद्य की टीका में किया है। तत्वप्रदीपिका का ही दूसरा नाम चित्सुखी है। आचार्य चित्सुख का समय श्री हर्ष के बाद का है क्योंकि उन्होंने खण्डन खण्ड खाद्य पर भावदीपिका नामक टीका लिखी है। माध्ववेदान्ती जयतीर्थ (१३६५–१३८८) ने इनका उल्लेख किया है। आनन्दबोध भट्टारक जिनका समय १२०० ई० है चित्सुख के पूर्ववर्ती थे क्योकि चित्सुख ने उनके दो ग्रन्थों पर टीकाएं लिखी है। इससे सिद्ध होता है कि चित्सुख का समय १२२० से १२२४ ई० है। वे कल्पतरुकार अमलानन्द के समकालीन प्रतीत होते है। चित्सुख के प्रधान शिष्य सुखप्रकाश थे जो अमलानन्द के गुरु थे। शङ्कर परवर्ती अद्वैत वेदान्तियों में साक्षी को लेकर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण था। आचार्य चित्सुख साक्षी एवं प्रमाता में भेद मानते है। वे साक्षी को स्वतंत्र एवं द्रष्टा मात्र मानते है। इसके विपरीत प्रमाता, आचार्य चित्सुख के अनुसार ज्ञाता है तथा ज्ञान के साधनों के कार्य के अधीन है।' आचार्य चित्सुख दुःख को सुख का विरोधी मानते है। इसलिये मानते है कि दुःख का विनाश स्वतः पुरुषार्थ न होकर केवल सुख ही स्वतः पुरुषार्थ है। चित्सुखाचार्य मानते हे कि दुखाभाव स्वतंत्र रूप से पुरुषार्थ नहीं है, प्रत्युत् सुखाभिव्यक्ति का अंग मात्र है। क्योंकि सुख को यदि दुःखाभाव का अंग मान लिया जाय तो उसे दुःखाभाव का उत्पादक नहीं माना जा सकता और न तो उसका अभिव्यंजक ही माना जा सकता 'तत्वप्रदीपिका (चतुर्थ परिच्छेद) पृ० ३८१-३८२ इस पर देखिये नयन प्रसादिनी टीका (निर्णयसागर, बम्बई, १६३१) * नात्र दुःखाभाव स्वतंत्रताया पुरुषार्थ सुखाभिव्यक्ति शेषत्वात् । न च विपरीत वृत्ति प्रसंगा विकल्पा सहत्वात् । किं सुख दुःखा भावस्योत्पाद मुताभिव्यंजकम्, नोम यथापि। (तत्व प्रदीपिका. चतुर्थ परिच्छेद) 306

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