Book Title: Bramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Author(s): Vandanadevi
Publisher: Ilahabad University

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Page 336
________________ मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतसिद्धि में व्यासतीर्थ के ग्रन्थ न्यायामृत का खण्डन किया है। व्यासतीर्थ ने न्यायामृत में आनन्दबोध तथा तथा प्रकाशात्मा की युक्तियों का खण्डन किया' जिसका निराकरण मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैत सिद्धि में किया । निश्चित रूप से अद्वैतवेदान्त में मधुसूदन सरस्वती की देन दो प्रकार से हैपहली देन है— बाध प्रस्थान को चरम बिन्दु तक पहुंचा देना और अद्वैत वेदान्त को तर्कतः स्थापित करना। दूसरी मुख्य देन है अद्वैतवेदान्त में भक्ति और भागवत पुराण का प्रवेश करना मधुसूदन सरस्वती की यह महती उपलब्धि है कि इन्होंने कर्म, भक्ति और ज्ञान के सह समुच्चय का प्रचार किया तथा अपने समय में प्रचलित भक्ति आन्दोलन को अद्वैतवेदान्त की तरफ उन्मुख किया। जहां श्री हर्ष और चित्सुख का उद्देश्य न्याय वैशेषिक का खण्डन करके अद्वैतवाद की स्थापना करना था वहां मधुसूदन सरस्वती का लक्ष्य द्वैत वेदान्त का खण्डन करके अंदैत वेदान्त की स्थापना करना था। इसके पीछे कारण यह था कि उनके समय में नव्य न्याय का झुकाव अद्वैतवेदान्त की दिशा में हो रहा था और माध्व वेदान्ती अद्वैतवेदान्त के कट्टर आलोचक थे। इसलिये मधुसूदन जी ने पूर्वपक्षी की आलोचनाओं की प्रत्यालोचना करके अद्वैतवाद की युगीन सेवा प्रारम्भ की। अद्वैतसिद्धि के सिद्धान्तों में 'मिथ्यात्व' की विशेष चर्चा है । व्यासतीर्थ ने मिथ्यात्व के पांच लक्षण लिये और सभी में दोष स्पष्ट किये किन्तु मधुसूदन सरस्वती ने इन पांच लक्षणों को निर्दोष सिद्ध किया । जो विवादित बिन्दु है संक्षेप में इस प्रकार हैक. क्या सत्त्वासत्त्वधिकरण सत्वविशिष्ट असत्त्वाभाव है? अथवा ख. सत्त्वात्यन्त्वाभाव और असत्त्वात्यन्ता भाव दोनों का आधार है? " विक्षिप्त संग्रहात क्वापि क्वाप्युक्तस्योपपादनात् । अनुक्तकथनात्क्वापि सफलोऽयं श्रमो मम् ।। (न्यायमृत १/८) 321

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