Book Title: Bramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Author(s): Vandanadevi
Publisher: Ilahabad University

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Page 375
________________ उपसंहार पूर्ववर्ती छ: अध्यायों में दर्शन का परिचय, दर्शन की मुख्य विधाओं तथा वेदों, उपनिषदों ब्राह्मण आरण्यक एवं गीता आदि में अद्वैत दर्शन के मूल बीज का वर्णन करने का प्रयास किया गया है। शङ्करप्राग अद्वैतवाद में योगवासिष्ठ का भी अपना महत्त्व है। जिसमें अद्वैतवेदान्त की पूर्व रूप-रेखा मिलती है । शङकराचार्य प्राग षोडश वेदान्ताचार्य तथा उनके सिद्धान्तों का भी वर्णन किया गया है। इन षोडश वेदान्ताचार्यों तथा उनके सिद्धान्तों का वर्णन किया गया। इन षोडश वेदान्ताचार्यों में सप्त आर्ष वेदान्ताचार्य हैं यथा- आत्रेय, आश्मरथ्य, औडलोमि, कार्ष्णाजिनि काशकृत्स्न, जैमिनि, वादरायण इनमें से तीन वेदान्ताचार्य भर्तृहरि गौडपाद, मण्डनमिश्र, विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। ये षोडश आचार्य जीव ब्रह्म की एकता मानते हैं । और अविद्या से संसार तथा ज्ञान से मुक्ति मानते हैं । किन्तु इन सभी आचार्यों के मतों में कुछ न कुछ अवान्तर भेद विद्यमान है। इनमें से किसी के मत में उपनिषद् वाक्यों का समन्वय नहीं घटित होता है। इसमें किसी-किसी का सिद्धान्त युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता, और किसी-किसी का श्रुति सम्मत और तर्क सम्मत नहीं प्रतीत होता है। भगवान शङ्कर ने दोषों का निवारण करके परमात्मा से प्राप्त अद्वैत सिद्धान्त को और परिष्कृत किया । भगवान शकराचार्य ने अपनें सिद्धान्त में अविद्या, ब्रह्म का निर्गुणत्व और निराकारत्त्व तथा जीव ब्रह्म ऐक्य आदि का नूतन आविष्कार नहीं किये थे और न तो कहीं से ले आये थे । यथा- इनमें आश्मरथ्य और औडुलोमि, भर्तृप्रपञ्च और श्री ब्रह्मदत्त जीव ब्रह्म भेदाभेद मानते थे। इनका मानना था कि संसार दशा में जीव का ब्रह्म से अभेद्य है इनमें औडुलोमि मुक्तावस्था में भेद मानते । और संसारी दशा में अभेद मानते हैं किन्तु यह भेद सहिष्णुरभेद है। भगवान शङकर इस भेदाभेद का खण्डन करते हैं और कहते हैं 'यदेकेन विज्ञानेन सर्वविज्ञातं भवतीति प्रतिज्ञासिद्धयर्थं भेदो निराकरणीयः' । 360

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