Book Title: Bramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Author(s): Vandanadevi
Publisher: Ilahabad University

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Page 372
________________ अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य ही जीव हो सकता है किन्तु इसमें स्वच्छत्व और अस्वच्छत्व विशेषण लगाने पर हठात् इसको प्रतिबिम्बवाद मानना पड़ेगा। श्री वाचस्पति मिश्र ने जीव को प्रतिबिम्बकल्प भी कहा है 'तथापि तत्प्रतिबिम्ब कल्प जीव द्वारेण परस्मिन्नुच्यते । ' ( ब्र० सू० १/४/६) इसीप्रकार प्रतिबिम्बवाद की समीक्षा में भी आक्षेप लगाया गया है कि नीरूप चैतन्य का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। इसके उत्तर में कहा जाता है कि जैसे जल में नीरूप आकाश का प्रतिबिम्ब पडता है वैसे ही नीरूप चैतन्य का भी प्रतिबिम्ब पड़ सकता है। इस प्रकार बिम्ब के साथ प्रतिबिम्ब के तादात्म्य या अभेद होने से और प्रतिबिम्ब के सत्य होने से प्रतिबिम्ब रूप जीव को कभी मुक्ति ही नहीं मिल सकती है। और यदि बिम्ब-प्रतिबिम्ब में भेद माना जाय तो प्रतिबिम्ब में चैतन्य नहीं बन पाता । इसके समाधान में कहा जाता है कि बिम्ब से प्रतिबिम्ब का भेद प्रतीत होना केवल अध्यास है, प्रतिबिम्ब स्वरूपतः सत्य है । इस सिद्धान्त से प्रतिबिम्ब जीव का चैतन्य और बन्ध मोक्ष बन जाते है । आगे आभासवाद की समीक्षा में कहा गया है कि यदि आभास मिथ्या है तब तो चिदाभास रूप जीव भी मिथ्या है। इस स्थिति में न तो जीव का बन्धन बन पायेगा और न ही मोक्ष । वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मसूत्र के रचनानुपत्याधिकरण में (२/२/६) की भामती में प्रतिबिम्बवाद और आभासवाद दोनों पर यह आक्षेप किया है कि इन दोनों वादों के मानने पर वेदान्त में माध्यमिक मत का प्रवेश हो जायेगा और इस प्रकार के आभासवाद स्वीकार करने पर जीव का सर्वथा नाश हो जायेगा। इसके समाधान में कहा गया है कि जिस प्रकार विम्ब भूत जीव से प्रतिबिम्बभूत अभिन्न है या इन दोनों में तादात्म्य है, उसी प्रकार चिदाभास चित् से अभिन्न नहीं है, भिन्न भी नहीं है और भिन्नाभिन्न भी नहीं है अपितु अनिर्वचनीय है । अतेव आभास के अनिर्वचनीय होने से 357 1

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