Book Title: Bramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Author(s): Vandanadevi
Publisher: Ilahabad University

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Page 370
________________ छाया होने के कारण आभास है। छाया सत्य नहीं होती मिथ्या होती है। इसका कारण ब्रह्म की छाया अर्थात् आभास ब्रह्म से भिन्न है और इस प्रकार प्रतिबिम्ब भी सत्य नहीं मिथ्या हैं। प्रतिबिम्बवादी आचार्य आभासवाद को स्वीकार नहीं करते है क्योंकि इनका मानना है कि जीव की व्याख्या प्रतिबिम्बवाद से ही अधिक संगत हो सकती है। दर्पण में प्रतिबिम्बत मुख प्रतिबिम्ब वस्तुतः मुख से पृथक वस्तु नहीं है इस प्रकार बुद्धिदर्पण मे प्रतिबिम्बित चिद्प्रतिबिम्ब चिदात्मा से भिन्न नहीं है। यदि बिम्ब को प्रतिबिम्ब से अलग मान लिया जाय तो बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव ही नहीं बन सकता इसलिये बिम्ब को प्रतिबिम्ब से अलग नहीं मानना चाहिए। यदि मान भी लिया जाय तो "दर्पण में मुख नहीं है" ऐसा करके बाध ज्ञान का उदय होता है तो उस समय मुख के साथ दर्पण का ही सम्बन्ध ज्ञात होता है। किन्तु प्रश्न यह उठता है कि जिस प्रकार दर्पणगत मुख प्रतिबिम्ब ज्ञान-शून्य होता है उसी प्रकार जीव भी ज्ञान-शून्य होगा। प्रतिबिम्ब को चेतन नहीं मान सकते क्योंकि प्रतिबिम्ब को चेतन मानने पर मुख में चेष्टा हुये बिना ही प्रतिबिम्ब में चेष्टा होने लगी। परन्तु मुख से चेष्ठा हुए बिना प्रतिबिम्ब में चेष्ठा नहीं होगी जीव में चैतन्य गुण जीव भाव के समय में भी होता है इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि 'दृष्टान्त सर्वांश में नहीं दिया जाता है। दर्पण में स्थित मुख-प्रतिबिम्ब को मुख से भिन्न नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ऐसा कहने पर मुख के बिना भी प्रतिबिम्ब की स्थिति की आपत्ति होगी। कुछ अद्वैत वेदान्ती आक्षेप करते है कि प्रतिबिम्ब बोध पूर्णतया भ्रान्ति है। क्योंकि जब प्रतिबिम्ब गृहीत होता है तब नेत्र-रश्मि दर्पण से टकराकर वापस आकर पुनः बिम्ब-रूप मुख का ही ग्रहण कराती है ग्रहण मुख का ही होता है इसी कारण प्रतिबिम्ब विपरीत रुप से गृहीत होता है। प्रतिबिम्बवादी आचार्य अवच्छेदवाद पर भी आरोप करते है। इनके मत में जब चैतन्य अन्तःकरण द्वारा परिच्छिन्न होता है तब वही परिच्छिन्न चैतन्य मृत्यु के पश्चात् नहीं रह 355

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