Book Title: Bramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Author(s): Vandanadevi
Publisher: Ilahabad University

View full book text
Previous | Next

Page 362
________________ ही समान है, क्योंकि दृष्टि ही सृष्टि है, ऐसा वे मानते है । ब्रह्माश्रित अविद्या के मत को सर्वाज्ञात्मामुनि ने एकचिदाश्रित एक अज्ञानवाद के रूप में परिणत किया। जो कि प्रकाशानन्द के एकजीववाद एक अविद्यावाद के सदृश है । इस प्रकार यद्यपि दृष्टि सृष्टिवाद और सृष्टि दृष्टिवाद में तथा नानाजीववाद और एक जीववाद में परस्पर द्वन्द्व है फिर भी इन दोनों पक्षों की परिणति अन्ततोगत्वा एक ही सिद्धान्त में हो जाती है दोनों ही एक जीववाद और अजातवाद को ( मायावाद को) अक्षरशः स्वीकार करते है । अतः अद्वैतवेदान्त का मुख्य सिद्धान्त एक जीववाद ही है, नानाजीववाद नहीं। ऐसा निष्कर्ष अनेक आचार्यो ने अपने-अपने ग्रन्थों में दिया है। परिणामवा और विवर्तवाद शांङ्कर अद्वैत वेदान्त की यह स्पष्ट विचारधारा है कि यह जगत मिथ्या है प्रपंच मात्र है और यह ब्रह्म का विवर्त है । शाङ्कर मत में इसे माया का परिणाम भी माना गया है। धर्मराजाध्वरीन्द्र ने- “उपादान विषम सत्ताक कार्यापत्ति" को विवर्त कहा है । अप्पय दीक्षित ने उपादान कारण के समान धर्मो के अन्यथाभाव को परिणाम और उसके विलक्षण अन्यथाभाव को विवर्त कहा है। सीधे अर्थ में विलक्षण भाव को विवर्त कहा जा सकता है। यथा - रज्जु में सर्प की प्रतीति विवर्त है। कारण गुणों को लेते हुये परिवर्तन को परिणाम कहा जाता है । यथा दूध से दधि का बनना परिणाम है। जिसे बाद में विशिष्टाद्वैतवादी रामानुज ने स्वीकार किया इनके अनुसार सृष्टि ईश्वर का परिणाम है। शब्दापरोक्षवाद और अविद्यानिवृत्ति "तत्वमसि' आदि महावाक्यों द्वारा अथवा “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इत्यादि वाक्यों " सिद्धान्तलेश संग्रह पृ० ५८-६० 347

Loading...

Page Navigation
1 ... 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388