Book Title: Bramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Author(s): Vandanadevi
Publisher: Ilahabad University

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Page 364
________________ इन तीनों साधनों के पूर्वापर के सम्बन्ध में आचार्यो में मतभेद है। वाचस्पतिमिश्र मानते है कि श्रवण, मनन, निदिध्यासन इसी क्रम से ब्रह्मसाक्षात्कार का हेतु है । विवरण प्रस्थान मानता है कि ब्रह्मसाक्षात्कार का साधन केवल श्रुतिवाक्य का श्रवण है। श्रवण प्रधानकारण है तथा मनन तथा निदिध्यासन गौण कारण है तथा परम्परया हेतु है । शाङ्करमत में केवल ज्ञान को ही ब्रह्मसाक्षात्कार का हेतु माना गया है । किन्तु कुछ आचार्यो ने जैसे ब्रह्मदत्त तथा मण्डन मिश्र ने कर्मसमुच्चित ज्ञान को ब्रह्मसाक्षात्कार का कारण माना है। इसको अभ्यास तथा प्रसंख्यान कहते है । 'प्रसंख्यान' से तात्पर्य है उपासना, आराधना या अभ्यास करना है। साक्षी या प्रमाता साक्षी अद्वैत वेदान्त का एक विशिष्ट तत्त्व है जो आत्मा या ब्रह्म, ईश्वर और जीव इन तीनों से भिन्न है । साक्षी परब्रह्म के समान निर्गुण, निर्विशेष और नित्य चैतन्य है जो स्वतः सिद्ध और स्वप्रकाश है। विशुद्ध आत्म-तत्त्व के सदृश ही यह साक्षी समस्त ज्ञान और अनुभव का अधिष्ठान है। परब्रह्म या आत्म-तत्त्व निरुपाधिक है, किन्तु साक्षी सोपाधिक है । यद्यपि वह किसी भी प्रकार की उपाधि से लिप्त नहीं होता है फिर भी वह सोपाधिक है। साक्षी जीव और ईश्वर में अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक जीव में उसका साक्षी विद्यमान रहता है। साक्षी शुद्ध नित्य चैतन्य और निर्गुण, निर्विकार द्रष्टा है, जबकि जीव कर्ता और भोक्ता है। जीव और साक्षी का अन्तर मुण्डकोपनिषद् में बताया गया है कि दो पक्षी साथ-साथ सखा भाव से एक ही वृक्ष पर रहते है उसमें से एक स्वादु फल को चाव से खाता है किन्तु दूसरा बिना खाये केवल देखता रहता है। वह उपनिषद् वाक्य जीव और साक्षी का अन्तर स्पष्ट करता है । साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च (श्वेता० उप० ) ૨ 'द्वा सुपर्णा सुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ! तयोरन्य: विप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्न्योऽभिचाकशीति ।। (मुण्डको० ३/१/१) 1 349

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