Book Title: Bhuvandipak
Author(s): Bacchu Sharm
Publisher: Gangavishnu Shrikrushnadas

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Page 15
________________ (२) भुवनदीपकः । अर्थ- ग्रन्थकी निर्विघ्न समाप्तिके लिये ग्रंथकी आदि में मंगल करना शिष्टसंप्रदाय है, इसीलिये यह पद्मप्रभुसूरि नामक आचार्य भी नमस्कारात्मक मंगल करते हैं - कि, सकल अज्ञानरूप अन्धकारोंको नाश करनेवाले सरस्वती सम्बन्धी [ या (सारस्वत) पार्वतीजीका पुत्र गणेशरूपी ] तेजको नमस्कार करके इस भुवनदीपक नामक ग्रन्थ में सूर्यादि नवग्रह और लग्नादि द्वादश भावोंके व्याख्यारूप प्रकाशद्वारा ज्योतिश्शास्त्र सम्बन्धी ज्ञानको मैं प्रकाश करता हूँ अर्थात् जिस तरह दीपकसे अन्धकारमें स्थित वस्तुओंका ज्ञान होता है, उसी तरह इस " भुवनदीपक " ग्रंथद्वारा ज्योतिशास्त्र सम्बन्धी ज्ञानको प्रकाश करता हूँ ॥ १ ॥ गृहाधिपा उच्चनीचा अन्योन्यं मित्रशत्रवः || राहोगृहोच्चनीचानि केतुर्यत्रावतिष्ठते ॥ २ ॥ सं० टी० -अस्मिन् ग्रन्ये षटूत्रिंशद्वाराणि प्रवर्तन्ते तस्मातान्येव पूर्वमुद्दिशति नवलोकैः । अस्मिन् भुवनदीपके षट्त्रिंशद्वाराणि वक्ष्यन्त इत्यन्ते सम्बन्धः । गृहाधिपा इति-गृहाणां मेषादीनां लग्नानामविषाः स्वामिनः १, उच्चनीचत्वम् २, अन्योन्यं मित्रशत्रवः ३, राहोरुच्चनीचगृहाणि ४, केतुर्यत्र यस्मिन् राशौ अवतिष्ठते ५ ॥ २ ॥ अर्थ - इस ग्रंथ में छत्तीस द्वार हैं। उन छत्तीसों द्वारोंमें जो जो विषय आचार्य कहेंगे, उनको पहिले नौ श्लोकोंमें कहते हैं - कि, "Aho Shrut Gyanam"

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