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जीवन, व्यक्तित्व और विचार
(३) वीर
महावीर का तीसरा नाम है-वीर। यहां से उनके कृतित्व का श्रीगणेश है। वीरत्व पुरुषार्थ का नामान्तर है । वर्द्ध मान सन्मति वीरत्व में प्रकट हुई, यानी भेद-विज्ञान की प्रारम्भिक मुद्रा रूप ग्रहण करने लगी। इसे हम करुणा की एक गहन शक्ल के रूप में जान सकें तो बेहतर है । अभी एक सत्यार्थी भीतर-भीतर यात्रा कर रहा था, अब उस दीये की रोशनी वाहर आने लगी है। उसकी यात्रा कृतित्व में उभरने लगी है। वीरता का मतलब है-लौकिक अड़चनों की चिन्ता न करते हुए सम्यक्त्व की खोज में अविचल होने का आरम्भ । महावीर में सम्यक्त्व के लिए जो शूरता चाहिए थी वह पायो । अड़चनों के सांप पर उनका पांव ठीक-ठीक रखा हुआ है, यह देखा जा सकता है। यहां से स्व-पर-विज्ञान ने रूप लेना प्रारम्भ किया। परिग्रह गया, स्वगृह की खोज में। वह छूटा या छूटने लगा जो परत्व है। भेद-विज्ञान के लिए प्रना ने कमर कस ली। णमोक्कार मन्त्र में यह दोनों ओर से मझधार है, नीचे से, ऊपर से । आचार्य व्यवहार का आरम्भ है। वह कथनी-करनी का स्पष्ट सेतुबन्ध है। मन्त्र का अंश है-'मो आयरियाणं' प्राचार्यों को नमन । वोरत्व में प्राचार्यत्व का प्रतिविम्ब स्पष्ट देखा जा सकता है। (४) महावीर
महावीरता का जन्म हुआ है श्मसान में। उज्जयिनी का अतिमुक्तक श्मसान, यानी वैराग्य में से महावीर हुए। स्थाणुरद ने सारी बाधाएं उपस्थित कर ली। वह हार गया वाधाएं बनाते, खड़ी करते । आखिर उसे कहना पड़ा-महावीर हैं आप, मुझे क्षमा करें। परिग्रह श्मसान में जा कर हारा है, जहां लोग मिटते हैं। महावीर वहां से चौथे चरण पर आये हैं अर्हतत्व की ओर जैसे श्मसान में चुनौती हर आदमी को मिलती है, किन्तु हर आदमी स्वीकार कहां करता है ? वह उसे भूल जाता है, या भूल जाना पसन्द करता है। महावीर श्मसान गये थे, ले जाए नहीं गए। हम जाते कहां हैं, ले जाए जाते हैं। जाते भी हैं तो लौट पाने के लिए, किसी सामाजिक उद्देश्य से । महावीर का यह नाम कई दृष्टियों से महत्व का है। (५) प्रतिवीर
महावीर का पांचवां नाम है-अतिवीर । अतिवीरत्व की स्थिति सिद्धत्व में है। णमोक्कार के पहले-दूसरे चरण आपस में आगे-पीछे हैं । इन पर चिन्तन हुआ है और तथ्य को स्पष्ट कर दिया है । सिद्ध की स्थिति शिखर पर है, अर्हन्त की उसके वाद । अतिवीरता, यानी लौकिक वीरता की इति और अलौकिक वीरता का प्रारम्भ । अतिवीरता टिकी रहने वाली वीरता है । यह आत्मा में पैठी हुई है। इसे प्रकट करने के लिए क्रमशः वीरता और महावीरता की जरूरत होती है । वीरता, महावीरता, अतिवीरता, इस तरह वीरता की तीन श्रेणियां सामने है । वीरता यानी सन्मति के साथ पुरुषार्थ, महावीरता अर्थात् स्व-पर भेद का उसकी सम्पूर्ण तीव्रता में प्रकट होना, अतिवीरता यानी वन्धमोक्ष के पार्थक्य की सम्पूर्ण सिद्धि का परम पुरुपार्थ ।