Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 12
________________ अपनी आलोचना का आधार बनाया। न्याय दर्शन में उद्योतकर ने, मीमांसा दर्शन में कुमारिलभट्ट एवं प्रभाकर ने और जैन दर्शन में द्वादशारनयचक्र के कर्ता मल्लवादी, आप्तमीमांसा के कर्ता समन्तभद्र आदि ने दिनांग का खण्डन किया है। दिनांग की प्रमुख रचनाओं में आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरीक्षा, हेतुचक्र, न्यायमुख, हेतुमुखप्रमाणसमुच्चय एवं उसकी वृत्ति आदि प्रमुख है। ज्ञातव्य है कि दिनांग के प्रमाणसमुच्चय का खण्डन करने के लिए उद्योतकर ने न्यायवार्तिक एवं कुमारिल भट्ट ने श्लोकवार्तिक की रचना की थी। जैन दार्शनिक मल्लवादी ने भी द्वादशारनयचक्र की न्यायागमानुसारिणी टीका में प्रमाणसमुच्चय की अवधारणाओं का खण्डन किया। इसके अतिरिक्त जैन ग्रंथ तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, सन्मतिप्रकरणटीका आदि में भी प्रमाणसमुच्चय की स्थापनाओं की समीक्षा उपलब्ध होती है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्ध दार्शनिक दिनांग के काल से भारतीय दार्शनिक चिंतन में विशेष रूप से प्रमाण सम्बंधी विवेचनाओं के खण्डन-मण्डन को पर्याप्त महत्त्व मिला। कुछ ऐसा भी हुआ कि अन्य परम्परा के लोगों ने अपने से भिन्न परम्परा के ग्रंथों पर टीकाएं भी लिखी। दिनांग का 'न्यायप्रवेश' बौद्धन्याय का एक प्रारम्भिक ग्रंथ है, किंतु यहां यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि इस ग्रंथ पर जैनाचार्य हरिभद्रसूरि ने न्यायप्रवेश मूलतः प्रमाण-व्यवस्था के संदर्भ में केवल बौद्ध मंतव्यों को प्रस्तुत करता है। इस पर हरिभद्रसूरि की टीका विशेष रूप से इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने इस सम्पूर्ण टीका में कहीं भी जैन मन्तव्यों को हावी नहीं होने दिया है। सम्भवतः ऐसा उदारवादी दृष्टिकोण हरिभद्र जैसे समदर्शी आचार्य का ही हो सकता है। न्यायप्रवेश की वृत्ति में हरिभद्र ने न्यायसूत्र व उसके भाष्यकार वात्स्यायन वार्तिककार उद्योतकर, तात्पर्यटीकाकार वाचस्पति मिश्र और तात्पर्यटीका पर परिशुद्धि लिखने वाले का भी उल्लेख किया है। दूसरी ओर इस ग्रंथ की टीका में धर्मकीर्ति के वादन्याय, न्यायबिंदु एवं प्रमाणवार्तिक, शान्तरक्षित के तर्कसंग्रह और नागार्जुन के माध्यामिकशास्त्र एवं दिग्नांग के प्रसारणसमुच्चय का भी निर्देश किया गया है। डॉ. रंजन कुमार शर्मा ने इसी प्रसंग में न्यायप्रवेशसूत्रम् की भूमिका में हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा का जो निर्देश किया है, वह भ्रांत है, क्योंकि यह ग्रंथ हरिभद्र से परवर्ती है। अतः इसका निर्देश हरिभद्र की न्यायप्रवेश की टीका में सम्भव नहीं है। दिनांग के प्रमाणसमुच्चय और न्यायप्रवेश के पश्चात् बौद्धन्याय के प्रमुख आचार्यों में धर्मकीर्ति का नाम आता है। धर्मकीर्ति ने जहां एक ओर अपने ग्रंथ प्रमाणवार्तिक में

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