Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 98
________________ को सर्वज्ञ या पर्यायवाची माना गया। इस प्रकार ‘अरहन्त' शब्द ने जैन परम्परा में एक अपना विशेष अर्थ प्राप्त किया। कालान्तर में अरिहन्त के (अरि+हंत) रूप से यह रागद्वेष रूपी शत्रुओं को मारने वाला और अरहंत के रूप में जो संसार में पुनः जन्म नहीं लेने वाला माना गया, वह व्याख्या जैन और बौद्ध दोनों में है। अतः आगे चलकर यह अर्थ भी स्थिर नहीं रह सका और जैन परम्परा में अरहंत शब्द केवल तीर्थंकरों का पर्यायवाची बन गया। यदि हम सव्वणु' (सर्वज्ञ) और केवली शब्द का इतिहास देखें तो इनके भी अर्थ में कालान्तर में विकास देखा जाता है। प्राचीन स्तर के जैन आगमों जैसे-- सूत्रकृतांग, भगवती आदि में सर्वज्ञ शब्द उस अर्थ का वाचक नहीं था जो उसे बाद में मिला। तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य-साहित्य में तथा अन्य ग्रंथों में सर्वज्ञ' और केवली' शब्द सभी द्रव्यों और उनकी पर्यायों के त्रैकालिक ज्ञान के वाचक माने गए हैं, किंतु सूत्रकृतांग एवं भगवती में सर्वज्ञ और केवली शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुए हैं। वहां सर्वज्ञ' शब्द का अर्थ आत्मज्ञ, आत्मद्रष्टा, आत्मसाक्षी और अधिक से अधिक जीवन और जगत् के सम्यक् स्वरूप का ज्ञाता ही था, इसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी प्रारम्भ में सर्वज्ञ का तात्पर्य हेय और उपादेय का विवेक था। दूसरे शब्दों में उस काल तक सर्वज्ञ शब्द आत्मज्ञान एवं दार्शनिक ज्ञान का ही पर्यायवाची था, अन्यथा भगवती में केवली 'सिय जाणइ सिय ण जाणई' ऐसा उल्लेख नहीं होता। इस सम्बंध में पंडित सुखलालजी ने पर्याप्त विचार किया है। सर्वज्ञ का पर्यायवाची केवली' शब्द भी अपने प्राचीन अर्थ को खोकर नवीन अर्थ में सर्वज्ञाताद्रष्टा अर्थात् सभी द्रव्यों की सभी पर्यायों के त्रैकालिकं ज्ञान का वाचक बन गया, वहां यह भी स्मरण रखना होगा कि केवली शब्द प्राचीन सांख्य परम्परा में जैन परम्परा में आया और वहां वह आत्मद्रष्टा के अर्थ में या प्रकृति-पुरुष के विवेक का ही वाचक था। यही कारण था कि कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा, कि वस्तुतः केवली आत्मा को जानता है, वह लोकालोक को जानता है यह व्यवहार नय या व्यवहार दृष्टि है। पाली त्रिपिटक में सर्वज्ञ का जो मखौल उड़ाया गया है, वह उसके दूसरे अर्थ को लेकर है। यही स्थिति 'बुद्ध', 'जिन' और 'वीर' शब्दों की है। एक समय तक ये जैन, बौद्ध एवं अन्य श्रमण परम्पराओं के सामान्य शब्द थे। प्रारम्भ में इनका अर्थ क्रमशः इन्द्रियविजेता, प्रज्ञावान और कष्टसहिष्णुसाधक था किंतु आगे चलकर जहां जैन परम्परा में 'जिन' शब्द और बौद्ध परम्परा में 'बुद्ध' शब्द विशिष्ट अर्थ के वाचक बन गए, जैन परम्परा में 'जिन' शब्द को मात्र तीर्थंकर का पर्यायवाची और बौद्ध परम्परा में बुद्ध को धर्मचक्र प्रवर्तक बुद्ध का (92)

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