Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 102
________________ पारिभाषित शब्दों के अर्थ-निर्धारण के लिए बौद्ध पिटक का अध्ययन आवश्यक है वहीं बौद्ध पिटक साहित्य के शब्दों के अर्थ निर्धारण के लिए जैन आगमों का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि ये दोनों परम्पराएं एक ही देश और काल की उपज हैं। बिना बौद्ध साहित्य के अध्ययन के आचारांग जैसे प्राचीनस्तर के ग्रंथ में प्रयुक्त विपस्सि, तथागत, पडिसंखा, आयतन, संधि आदि शब्दों के अर्थ स्पष्ट नहीं हो सकते उसी प्रकार पिटक साहित्य में प्रयुक्त वारि' जैसे अनेक शब्दों का अर्थ बिना जैन आगमों के अध्ययन से स्पष्ट नहीं हो सकता। हमें यह स्मरण रखना होगा कि कोई भी परम्परा शून्य में उत्पन्न नहीं होती उसका एक देश और काल होता है जहां से वह अपनी शब्दावली ग्रहण करती है। यह ठीक है कि अनेक बार उस शब्दावली को नया अर्थ दिया जाता है फिर भी शब्द के मूल अर्थ को पकड़ने के लिए हमें उसे देश, काल व परम्परा का ज्ञान भी प्राप्त करना होगा, जिसमें उसका साहित्य निर्मित हुआ है। अतः पारिभाषिक शब्दों के अर्थ-निर्धारण की प्रक्रिया में न तो उस देश व काल की उपेक्षा की जा सकती है, जिसमें उन शब्दों ने अपना अर्थ प्राप्त किया है और न समकालीन परम्पराओं के तुलनात्मक अध्ययन के बिना ही अर्थ-निर्धारण की प्रक्रिया को सम्पन्न किया जा सकता है। परमसुख की साधना : विपश्यना समग्र भारतीय साधनाओं का मुख्य लक्ष्य चेतना की निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त करना है। योगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि योग साधना का लक्ष्य चित्तवृत्तिका निरोध है। श्रमण परम्परा की साधना में चित्त की निर्विकल्प दिशा को ही निर्वाण के रूप में परिभाषित किया गया है। उसमें माना गया है कि तृष्णा विकल्प जन्य है। विकल्पों के निरोध के बिना तृष्णा का उच्छेद सम्भव नहीं है। उसी प्रकार जैन परम्परा में भी यह कहा गया है कि मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का उच्छेद ही साधना का लक्ष्य है। जिसे उसकी पाम्परिक भाषा में योग-निरोध' कहा गया है, यह रोग निरोध भी चित्तवृत्ति की निर्विकल्पता ही है। इसे समता या वीतरागता के रूप में भी माना गया है। फिर भी यह विचारणीय प्रश्न है कि निर्विकल्पता से हमारा क्या तात्पर्य है? परमसुख विपश्यना नामक प्रस्तुत पुस्तक में कन्हैयालालजी लोढ़ा ने निर्विकल्पता को दो (96)

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