Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 105
________________ का उल्लेख नहीं करता है। आचारांग में त्राटक के भी उल्लेख हैं। प्राचीनस्तर के जैन आगमों में तथा बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के कुछ ग्रंथों में इसके भी संकेत मिलते हैं, जो इसकी प्राचीनता के प्रमाण हैं। किंतु साधना की यह पद्धति गुरु-शिष्य परम्परा से ही चलती रही। क्योंकि इस साधना में करना कुछ भी नहीं होता है, मात्र दृष्टा बन करके देखना होता है। इसीलिए इस साधना पद्धति की प्रक्रिया के विवरणात्मक ग्रंथों का अभाव ही रहा, किंतु गुरु-शिष्य परम्परा से ही यह पद्धति जीवित रही। आज यह कहना तो कठिन है कि विपश्यना या प्रेक्षा की यह साधना पद्धति कब अस्तित्व में आई। बुद्ध और महावीर ध्यान करते थे, किंतु वे किसका ध्यान करते थे, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में मात्र यह उल्लेख मिलता है कि भगवान बुद्ध ने प्रारंभिक अवस्था में रामपुत्त से ध्यान साधना सीखी थी। अतः साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर हम केवल यही कह सकते हैं, कि रामपुत्त की यह साक्षीभाव की साधना कालक्रम में बौद्ध परम्परा में विपश्यना के रूप में और जैन परम्परा में प्रेक्षा के रूप में अस्तित्व में आई। ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान बुद्ध ने रामपुत्त से इस साधना को सीखकर उसे बौद्ध परम्परा में जीवित रखा था। यद्यपि त्रिपिटक साहित्य में इस साधना के विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होते हैं, किंतु भारत से बाहर कर्मा (ब्रह्मदेश) में यह साधना जीवित रही और पूज्य श्री सत्यनारायणजी गोयनका वहां से इसे पुनः भारत लाए। इस साधना के प्रवर्तक कौन थे? यह बताना तो कठिन है, किंतु रामपुत्त के उल्लेख जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं के प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। जैन परम्परा में रामपुत्त का एक अध्ययन ऋषिभाषित में आज भी उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त सूत्रकृतांग में भी इनके नाम का निर्देश है। अंतकृतदृशा की प्राचीन विषय वस्तु में भी रामपुत्त का एक अध्ययन था, इसका उल्लेख स्थानांग सूत्र में मिलता है। इसी प्रकार बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी रामपुत्त के उल्लेख हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि बुद्ध और महावीर से पूर्व भी साक्षीभाव, विपश्यना और प्रेक्षा की यह साधना पद्धति जीवित थी। यह तो स्पष्ट है कि विपश्यना की यह साधना पद्धति बुद्ध से पूर्व की है। विपश्यना जैसे कि उसके नाम से ही स्पष्ट है कि वह दृष्टाभाव की साधना है। प्रेक्षा या साक्षीभाव की साधना को भी इसी का एक रूप माना जा सकता है। ज्ञातादृष्टाना आत्मा या चित्त-सत्ता का स्वभाव है यदि व्यक्ति की चेतना दृष्टाभाव (99

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