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के अज्ञान के कारण वह अन्य अर्थ में ही पारिभाषित किया गया, दाहरण के रूप में 'तालपलम्ब' (ताड़प्रलम्ब) शब्द जो निशीथ में प्रयुक्त हुआ है वह अपने मूल अर्थ में अंकुरित ताड़बीज का सूचक था, किंतु जब जैन मुनिसंघ राजस्थान और गुजरात जैसे क्षेत्र में चला गया तो वह उसके अर्थ से अनभिज्ञ हो गया और आज जैन परम्परा में तालपलम्ब केले (कदलीफल) का वाचक हो गया है। इस प्रकार जैनागमों में प्रयुक्त अनेक शब्द टीकाकारों के काल तक भी अपना अर्थ खो चुके थे और टीकाकारों ने उन्हें अपने ढंग से और अपनी परम्परा के अनुसार पारिभाषित करने का प्रयास किया । वस्तुतः
ग्रंथ जिस-जिस देश और काल में निर्मित होता है उसके शब्दों के अर्थों को उस देश और काल की परम्परा और अन्य ग्रंथों के आधार पर पारिभाषित किया जाना चाहिए। उस देशकाल के ज्ञान के अभाव में अनेक शब्दों को टीकाकारों ने अपनी कल्पना के अनुसार पारिभाषित कर दिया है। उससे बचना आवश्यक है। आचारांग में 'संधि' शब्द आसक्ति या रागात्मकता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ था किंतु टीकाकार भी अनेक स्थलों पर उसे अवसर के रूप में पारिभाषित करते हैं। 'आसव' शब्द जैन और बौद्ध परम्पराओं में किन-किन अर्थों से गुजरा है, इसकी चर्चा 'एलेक्सवेमेन' ने की है। मोक्ख (मोक्ष) और 'निव्वाण' (निर्वाण ) शब्द सामान्यतया जैन परम्परा में पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होते हैं। किंतु उत्तराध्ययन में ये दोनों शब्द भिन्न-भिन्न स्थितियों के वाचक हैं। यहां कहा गया कि आसक्त का निर्वाण नहीं ( अमोक्खस्स नत्थि निव्वाणं ) ।
इसलिए प्राचीन प्राकृत और पालि साहित्य के अनुवाद और उनमें प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का निर्धारण एक कठिन और श्रमसाध्य कार्य है जो विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन के अभाव में सम्भव नहीं है, जो शब्द किसी काल में पर्यायवाची रूप में या भाषा सौष्ठव के लिए प्रयुक्त होते थे, व्युत्पत्ति और प्रतिभा के आधार पर उन्हें भिन्न भिन्न अर्थ का वाचक बना दिया हैं पालिसाहित्य में निगण्ठ- नाटपुत्त के संदर्भ में 'सव्ववारिवारितो' शब्द का प्रयोग हुआ है । अनुवादकों ने 'वारि' का अर्थ जल किया, जबकि सूत्रकृतांग के वीरस्तुति नामक अध्ययन के आधार पर देखें तो उसमें प्रयुक्त वारि शब्द का अर्थ जल न होकर पाप होगा, क्योंकि सूत्रकृतांग में महावीर की स्तुति करते हुए कहा गया है-- ‘से वारिया सव्व वारं इत्थीसरायभत्तं' अर्थात् उन्होंने लोगों को सभी पाप कर्मों, स्त्री और रात्रिभोजन से निवृत्त किया ।
यहां मैं इस बात पर विशेष रूप से बल देना चाहूंगा कि जहां जैन आगमों के
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