Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 85
________________ आत्महित की अवधारणा में हीनयान और महायान में कोई मौलिक विरोध नहीं रहा जाता। यद्यपि व्यावहारिक रूप से यह तथ्य सही है कि जहां एक ओर हीनयान ने एकल साधना और व्यक्तिनिष्ठ आचार-परम्परा का विकास किया और साधना को अधिकांशरूपेण आंतरिक एवं वैयक्तिक बना दिया, वहां दूसरी ओर महायान ने उसी की प्रतिक्रिया में साधना के वैयक्तिक पक्ष की उपेक्षा कर उसे सामाजिक और बहिर्मुखी बना दिया। इस तरह लोकसेवा और लोकानुकम्पा को अधिक महत्त्व दिया। यहां हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि हीनयान और महायान ने जिस सीमा तक अपने में इस एक पक्षीयता को प्रश्रय दिया है, वे उसी सीमा तक बुद्ध की मध्यमार्गीय देशना से पीछे भी हटे हिन्दू परम्परा में गीता में स्वहित के ऊपर लोकहित की प्रतिष्ठा हुई है। गीताकार की दृष्टि में जो अपने लिए ही पकाता और खाता है वह पाप ही खाता है। स्वहित के लिए जीने वाला व्यक्ति गीता की दृष्टि में अधार्मिक और नीच है। गीताकार के अनुसार जो व्यक्ति प्राप्त भोगों को देने वाले को दिए बिना अर्थात् उनका ऋण चुकाए बिना खाता है वह चोर है। सामाजिक दायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है। ___ गीता के अनुसार लोकहित करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। प्राणियों के हित सम्पादन में लगा हुआ पुरुष ही परमात्मा को प्राप्त करता हैं वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है। जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है, जो जीवन मुक्त हो गया है, जिसे संसार के प्राणियों से कोई मतलब नहीं, उसे भी लोक-हितार्थ कर्म करते रहना चाहिए।15 श्रीकृष्ण अर्जुन से ही कहते हैं कि लोकसंग्रह (लोकहित) के लिए तुझे कर्तव्य करना उचित है। गीता में भगवान के अवतार धारण करने का उद्देश्य साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की संस्थापना है।17 ऐसी लोकमंगल की सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें बौद्ध आचार्य शांतिदेव के शिक्षा समुच्चय, नामक ग्रंथ में मिलता है। हिन्दी में अनूदित उनकी निम्न पंक्तियां मननीय हैं इस दुःखमय नरलोक में, जितने दलित, बन्धग्रसित, पीड़ित विपत्ति विलीन हैं, जितने बहुधन्धी विवेक विहीन हैं। जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदीन हैं, 79)

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