Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 93
________________ पुष्टि करता है। यदि हम मूलपाठ ‘युत्तो' ही मानते हैं उसे अयुत्तो' मानकर वारि+अयत्तो की संधि प्रक्रिया में अ' का लोप मानना होगा। प्राकृत व्याकरण और सम्भवतः पालि व्याकरण में भी स्वर-सन्धि के नियमों में दो स्वरों की सन्धि में विकल्प से एक स्वर का लोप माना जाता है। अतः मूल पाठ ‘अयुत्तो' होना चाहिए, किंतु सुमंगलविलासिनी में ऐसा कोई निर्देश नहीं है। (पठमोभागो, पृ.189) अपितु उसमें संधि तोड़कर युत्तो पाठ ही है। किंतु यतो पाठ मानने पर इस अंश का अर्थ होगा, वह सब पापों के प्रति संयमवान या उनका नियंत्रण करने वाला होता है। अतः राहुलजी का यह अनुवाद भी मेरी दृष्टि में मूलपाठ से संगतिपूर्ण नहीं है, फिर भी उन्होंने वह सर्वपापों का वारण करता है, ऐसा जो अर्थ किया है, वह सत्य के निकट है। मूलपाठ भ्रांत और टीका के अस्पष्ट होते हुए भी, उन्होंने यह अर्थ किस आधार पर किया मैं नहीं जानता, सम्भवतः यह उनकी स्वप्रतिभा से ही प्रसूत हुआ होगा। फिर भी पालि के विद्वानों को इस समस्या पर विचार करना चाहिए। इसके आगे सब्बवारिधुतो का अर्थ -- वह सभी पापों से रहित होता है-- संगतिपूर्ण है। किंतु आगे सब्बवारिफुटो का अर्थ-- वह सभी पापों से रहित होता है-- संगतिपूर्ण है। किंतु आगे सब्बवारिफुटो का अर्थ पुनः मूल से संगति नहीं रखता है। राहुलजी ने इसका अर्थ वह सभी पापों के वारण में लगा रहता है-- किस प्रकार किया मैं नहीं समझ पा रहा हूं। क्योंकि किसी भी स्थिति में फुटो' का अर्थ-वारण करने में लगा रहता है, नहीं होता है। पालि के विद्वान इस पर भी विचार करें। मूल के फुटो अथवा सुमंगलविलासिनी टीका के फुटो का संस्कृत रूप स्पृष्ट या स्पष्ट होगा। इस आधार पर इसका अर्थ होगा वह सब पापों से स्पृष्ट अर्थात् स्पर्शित या व्याप्त होता है, किंतु यह अर्थ भी संगतिपूर्ण नहीं लगता है-- निग्रंथ ज्ञातपुत्र स्वयं अपने निग्रंथों को सब पापों से स्पर्शित तो नहीं कह सकते हैं। यहां भी राहुल जी ने अर्थ को संगतिपूर्ण बनाने का प्रयास तो किया, किंतु वह मूलपाठ के साथ संगति नहीं रखता है। पालि अंग्रेजी कोश में राइसडेविड्स ने भी इन दोनों शब्दों के अर्थ निश्चय में कठिनाई का अनुभव किया है। मेरी दृष्टि में यहां भी या तो मूलपाठ में कोई भ्रांति है या पालि व्याकरण के स्वर संधि के नियम से अफुटो' के 'अ' का लोप हो गया है। मेरी दृष्टि में मूलपाठ होना चाहिए-- सब्ब्वारिअफुटो, तभी इसका अर्थ होगा वह सर्व पापों से अस्पर्शित होता है। यहां भी राहुलजी अर्थ की संगति बैठाने का जो प्रयास किया है वह उचित तो है। किंतु मूल पाठ एवं अट्ठकथा (टीका) के सम्बंध में उनकी ओर कोई टिप्पणी नहीं होना पाठक के लिए एक समस्या बन जाती है। मेरी दृष्टि में दीघनिकाय (87)

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