Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 40
________________ विद्वानों ने बौद्धदर्शन को प्रमाणव्यवस्थावादी और जैनदर्शन को प्रमाणसंप्लववादी कहा 3. प्रमाणलक्षण के सम्बंध में भी दोनों में कुछ समानताएं और कुछ मतभेद हैं। प्रमाण की अविसंवादकता दोनों को मान्य है, किंतु अविसंवादकता के तात्पर्य को लेकर दोनों में मतभेद है। जहां जैनदर्शन अविसंवादकता का अर्थ ज्ञान में आत्मगत संगति और ज्ञान और उसके विषय (अर्थ) में वस्तुगत संगति और उसका प्रमाणों से अबाधित होना मानता है, वहीं बौद्धदर्शन अविसंवादकता का सम्बंध अर्थक्रिया से जोड़ता है। बौद्धदर्शन में अविसंवादकता का अर्थ है अर्थक्रियास्थिति, अवंचकता और अर्थप्रापकता। इस प्रकार दोनों दर्शनों में अविसंवादिता का अभिप्राय भिन्न-भिन्न है। दूसरे बौद्धदर्शन में अविसंवादिता को सांव्यवहारिक स्तर पर माना गया है, जबकि जैन दर्शन का कहना है कि अविसंवादिता पारमार्थिक स्तर पर होना चाहिए। प्रमाण के दूसरे लक्षण अनधिगत अर्थ का ग्राहक होना, अकलंक आदि कुछ दार्शनिकों को तो मान्य है, किंतु विद्यानंद आद कुछ जैन दार्शनिक इसे प्रमाण का आवश्यक लक्षण नहीं मानते हैं। 4. जैन और बौद्ध दोनों दर्शन इस सम्बंध में एकमत हैं कि प्रमाण ज्ञानात्मक है। वे ज्ञान के कारण या हेतु (साधन) को प्रमाण नहीं मानते हैं, फिर भी जहां जैन दार्शनिक प्रमाण को व्यवसायात्मक मानते हैं वहां बौद्ध दार्शनिक कम से कम प्रत्यक्ष प्रमाण को तो निर्विकल्पक मानकर व्यवसायात्मक नहीं मानते हैं। 5. बौद्ध दर्शन में जहां प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक और अनुमान प्रमाण को सविकल्पक माना गया है वहां जैन दर्शन दोनों ही प्रमाणों को सविकल्प मानता है, क्योंकि उनके अनुसार प्रमाण व्यवसायात्मक या निश्चयायात्मक ही होता है। उनका कहना है कि प्रमाण ज्ञान है और ज्ञान सदैव सामान्यविशेषणात्मक और सविकल्पक ही होता है। ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में दर्शन और ज्ञान में भेद किया गया है। यहां दर्शन को सामान्य एवं निर्विकल्पक और ज्ञान को विशेष और सविकल्पक कहा गया है। बौद्धों का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष वस्तुतः जैनों का दर्शन' है। 6. जैनदर्शन में सिद्धसेन दिवाकर ने प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों को ही अभ्रान्त माना है, जबकि बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष को अभ्रान्त तथा अनुमान को भ्रान्त कहा गया है। इस प्रकार प्रत्यक्ष की अभ्रान्तता तो दोनों को स्वीकार्य है, किंतु अनुमान की अभ्रान्तता के सम्बंध में दोनों में वैमत्य (मतभेद) है। जैन दार्शनिकों का कहना है कि जो भ्रान्त हो, उसे (34)

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