Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 80
________________ गृही जीवन के बीच जो समन्वयात्मक प्रवृत्ति विकसित हुई थी, यह उसी का परिणाम था। इन तीनों ही परम्पराओं में यह स्वीकार कर लिया गया है कि निर्वाण के लिए संन्यास अनिवार्य तत्त्व नहीं है। मुक्ति का अनिवार्य तत्त्व है - अनासक्त, निष्काम, वीततृष्ण और वीतराग जीवन दृष्टि का विकास। फिर भी इतना अवश्य मानना होगा कि यह श्रमण परम्परा पर वैदिक धारा का प्रभाव ही था, जिसके कारण उसमें गृहस्थ जीवन को भी कुछ सीमाओं के साथ अपना महत्त्व एवं स्थान प्राप्त हुआ। फिर भी जहां महायान और जैन परम्परा में भिक्षु संघ की श्रेष्ठता मान्य रही, वहां गीता में 'कर्मसंन्यासात् कर्मयोगों विशिष्यते' कहकर गृही जीवन की श्रेष्ठता को मान्य किया गया। वैयक्तिकता बनाम सामाजिकता यह स्पष्ट है कि प्रारम्भिक श्रमण परम्पराएं निवृत्तिमार्गी होने के कारण व्यक्तिनिष्ठ थीं। व्यक्ति की मुक्ति और व्यक्ति का आध्यात्मिक कल्याण ही उनका आदर्श था। प्रारम्भिक बौद्धधर्म एवं जैनधर्म भी हमें व्यक्तिनिष्ठ ही परिलक्षित होते हैं, जबकि प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पारिवारिक जीवन की स्वीकृति के साथ ही सामाजिक चेतना का विकास देखा जाता है। वेदों में 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्' अथवा 'समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्तमेषाम्' के रूप में सामाजिक चेतना का स्पष्ट उद्घोष है। यद्यपि प्रारम्भिक श्रमण परम्पराएं घर-परिवार और सामाजिक जीवन से विमुख ही रही हैं, फिर भी प्रारम्भिक बौद्धधर्म और जैनधर्म में श्रमण संघों के अस्तित्व के साथ एक दूसरे प्रकार की सामाजिक चेतना का विकास अवश्य हुआ है। इन्होंने क्रमशः 'चरत्थ भिक्खवे चारिकं' बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' अथवा 'समेच्चलोयं......खेयन्ने हि पवइए' के रूप में लोकमंगल और लोककल्याण की बात कही है। फिर भी इनके लिए लोकमंगल और लोक-कल्याण का अर्थ इतना ही था कि संसार के प्राणियों को जन्म मरण के दुःख से मुक्त किया जाए। समाज का भौतिक कल्याण और समाज के दीन दुःखियों को वास्तविक सेवा का व्यवहार्य पक्ष उनमें परिलक्षित नहीं होता। भिक्षु - जीवन में संघीय चेतना का विकास तो हुआ, फिर भी समाज के सामान्य सदस्यों के भौतिक कल्याण के साथ जुड़ नहीं पाया। जैनधर्म का भिक्षु संघ तो आज तक भी समाज के वास्तविक भौतिक कल्याण तथा रोगी और दुःखियों की सेवा को अपनी जीवन चर्या का आवश्य अंग नहीं मानता। मात्र सेवा का उपदेश देता है, करता नहीं है। श्रमण परम्पराओं ने सामाजिक जीवन में सम्बंधों की शुद्धि का प्रयत्न तो अवश्य किया और उन तथ्यों का 74

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